Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/२६ से एक जैन विद्यालय की स्थापना कराने की योजना है, जिसमें देशविदेश के बालक रहकर जैनधर्म का अभ्यास कर सकें तथा शेष सवा लाख सोने की मोहरों से साधर्मीजनों की सहायता की जावें। राजा श्रीकंठ : बहुत अच्छी बात है। अब मेरी ओर से पांच लाख सोने की मोहरें जहाँ-जहाँ जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार एवं निर्माण कार्य चल रहा हो, वहाँ भेजी जावें। राजा श्रीकंठ : सेनापतिजी! क्या समाचार हैं? सेनापति : महाराज! राज्य में सर्वत्र शांति है। कहीं भी लड़ाई का नामो-निशान नहीं है। राजा श्रीकंठ : राज्य-सम्बन्धी चर्चा पूरी हो गई। अब सभा समाप्त की जाये। दीवानजी : महाराज! आज आपके साथ धर्मचर्चा का लाभ मिले -ऐसी हमारी भावना है। राजा श्रीकंठ : यह तो बहुत ही प्रसन्नता की बात है। आपको जो जानने की इच्छा हो, खुशी से पूछिये। दीवानजी : महाराज! इस जगत की रचना किसप्रकार हुई है? राजा श्रीकंठ : सुनो! इस जगत में सबसे ऊपर अनंत सिद्ध विराजमान हैं। उनके शरीर नहीं है, वाणी, राग, द्वेष कुछ भी नहीं है, बस एक उनका आत्मा चैतन्य-बिम्ब रूप में विराजमान है। सेनापति : वे सिद्ध भगवान वहाँ क्या करते हैं? राजा श्रीकंठ : वे अनंत आत्मिक सुख का वेदन करते हैं। आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद में लीन हैं –ऐसे सिद्ध भगवान जगत के शिरोमणि हैं, जगत के लिए परम ध्येय हैं। भंडारीजी : मध्यलोक कहाँ है? राजा श्रीकंठ : उसके बाद मध्यलोक आता है, जहाँ हम रहते

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92