________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/२२ उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना-इसप्रकार सम्यग्दृष्टि के ८ गुण मुख्य हैं।
सिद्धकुमार : प्रभो! समकिती का वात्सल्यगुण कैसा होता है?
इन्द्र : अंतर में अपने चिदानंदस्वरूप तथा रत्नत्रयधर्म के प्रति अपार प्रीति होती है - यह समकिती का निश्चय वात्सल्य है तथा बाहर में देव-गुरु-धर्म और अपने साधर्मियों के प्रति अपार वासल्य होता है, -यह समकिती का व्यवहार वात्सल्य है। जैसे गाय को अपने बच्चे के प्रति प्रीति होती है, बालक को अपनी माता के प्रति प्रेम होता है, उसीप्रकार धर्मी को अपने साधर्मियों के प्रति वात्सल्यभाव होता है अर्थात् अपने साधर्मी को देखकर धर्मात्मा प्रसन्न होते हैं।
सिद्धकुमार : महाराज! आपने वात्सल्यगुण का बहुत सुन्दर स्वरूप समझाया। अब समकिती का नि:शंकित गण कैसा होता है, वह समझाइये?
इन्द्र : सम्यग्दृष्टि जीव अपने ज्ञायकस्वभाव के श्रद्धान-ज्ञान में नि:शंक होते हैं. कैसा भी भयंकर प्रसंग उपस्थित हो जाय तो भी वे अपने स्वरूप की श्रद्धा से लेशमात्र भी डिगते नहीं एवं स्वरूप में संदेह करते नहीं। उसीप्रकार वीतरागी देव-गुरु-धर्म तथा जिनवचन में भी धर्मात्मा कभी संशय नहीं करते। कोई भी भय, लज्जा या लालच से जिनमार्ग से च्युत होकर विपरीत मार्ग का आदर कभी नहीं करते -ऐसा सम्यग्दृष्टि का नि:शंकित गुण है।
मुक्तिकुमार : प्रभो! सम्यग्दृष्टि के गुणों का वर्णन सुनने में हमको बहत आनंद आ रहा है। अब कृपा करके प्रभावना गुण को' समझाइये?
इन्द्र : निश्चय से तो अपने ज्ञानानंदस्वरूप की दृष्टि में समयसमय शुद्धता की वृद्धि करके समकिती जीव अपने आत्मा में धर्म की प्रभावना करते हैं और स्वयं ने जो अपूर्व धर्म प्राप्त किया है, वह धर्म जगत के दूसरे जीव भी प्राप्त करके आत्मकल्याण करें-ऐसी पवित्र भावना धर्मी को होती है। इसप्रकार धर्मी जीव वीतरागी देव-गुरु-धर्म की महा-प्रभावना करते हैं। जिनबिम्ब प्रतिष्ठा और पंचकल्याणक