Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 21
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/१९ तृतीय अंक (इन्द्रसभा) (इस तृतीय अंक में स्वर्ग के इन्द्र महाराज के जन्म तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के विषय में इन्द्र महाराज तथा देवों के बीच हुए वार्तालाप का दृश्य है। इन्द्रसभा लगी है। चार देव उसमें बैठे हैं। इन्द्रासन रिक्त है। एक ओर उत्पाद शैय्या है। उसमें श्वेत वस्त्र ओढ़कर इन्द्र महाराज सो रहे हैं।) दिव्यकुमार : बन्धुओ! आज अपने इन्द्र महाराज की आयु पूरी हो गयी है। अहो! इस क्षणभंगुर संसार में इन्द्र जैसे भी अमर नहीं हैं। इस संसार में मनुष्य, तिर्यंच, देव और नरक ये सभी चारों गतियाँ अधूव हैं, नश्वर हैं। एक सिद्धदशा ही ऐसी ध्रुव है कि जिसमें पुन: जन्म नहीं लेना पड़ता। ऐसी अविनाशी सिद्धगति हम कब प्राप्त करेंगे। सिद्धकुमार : हाँ, सच ही कहा है कि..... लक्ष्मी, शरीर, सुख-दुख अथवा शत्रु-मित्र जनो अरे! जीव को नहीं कुछ ध्रुव, उपयोग आत्मा एक जीव है।। मरता अकेला जीव, एवं जन्म एकाकी करे। पाता अकेला ही मरण, अरु मुक्ति एकाकी वरे।। मुक्तिकुमार : जिसप्रकार पाँच भावों में पंचम परम पारिणामिक भाव परममहिमावंत है, उसीप्रकार पाँच गतियों में पंचमगति परम महिमावंत है, जिसप्रकार उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक यह चारों भाव क्षणिक हैं और पंचम परमपारिणामिक भाव ध्रुव है, उसीप्रकार 'संसार में देव, नर, मनुष्य, नरक - ये चारों गतियाँ क्षणिक हैं, मात्र सिद्धदशा ही ध्रुव, अचल और अनुपम है। प्रकाशकुमार : अपने इन्द्र महाराज ने यहाँ से मनुष्य लोक में जन्म लिया है और इसी भव में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पूर्णता करके अभूतपूर्व ऐसी सिद्धदशा को प्राप्त करेंगे। अहो, धन्य है उस दशा को।

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