Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/१४ प्रताप से मुझे भी आत्मा के प्रति रुचि हुई है। अब मैं भी आपके समान आत्मानुभव शीघ्र करूँगा, परन्तु मेरी एक प्रार्थना है। ___ बड़ा भाई : प्रिय भाई! खुशी से कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है? TAGRAM छोटा भाई : भाईसाहब! जिसप्रकार अभी आपने मुझे धर्मोन्मुख किया, उसीप्रकार भविष्य में भी जब जरूरत पड़े, तब आप मुझे धर्मोपदेश देकर दृढ़ कीजिएगा -यही मेरी प्रार्थना है। बड़ा भाई : हाँ भाई! अवश्य, मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि यदि स्वर्ग में भी रहा तो तुम्हें धर्मोपदेश देने जरूर आऊँगा। छोटा भाई : भाईसाहब! आपका परम-उपकार है। अब आप कहाँ जा रहे हैं? मैं भी आपके साथ चलता हूँ। बड़ा भाई : प्रिय भाई! अवश्य चलो। (दोनों भाई साथ-साथ जाते हैं।) जिनमन्दिर की वैयावृत्ति सम्यक्त की प्राप्ति करे है तथा मिथ्याज्ञान, मिथ्याश्रद्धान का अभाव करे है। ___ स्वाध्याय संयम, तप, व्रत शीलादि गुण जिनमन्दिर का सेवनतें होय, नरक तिर्यंचादि गतिनि में परिभ्रमण का अभाव होय। जिनमन्दिर समान कोई उपकार करनेवाला जगत में दूजा नहीं है। ___ - पण्डित सदासुखदासजी, टीका रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पृ. 221

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92