Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 11
________________ 2 जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान की आन्तरिक ग्रन्थि और वस्त्र की बाह्य ग्रन्थि । ऐसा माना जाता था कि वस्त्र की बाह्य ग्रन्थि का राहित्य रागद्वेष की आन्तरिक ग्रन्थि के राहित्य को सूचित करता है । अतः वस्त्र की बाह्य ग्रन्थि के राहित्य को आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्व दिया जाता था । वस्त्र ग्रन्थ का राहित्य माने नग्नता । इस प्रकार 'निर्ग्रन्थ' शब्द का यौगिक अर्थ है 'नन' और किसी भी सम्प्रदाय के नग्न साधु के लिए मूलतः उस शब्द का प्रयोग होता होगा । हम जानते हैं कि भारत में प्राचीन काल में अनेक सम्प्रदाय के साधु नग्न रहते थे । ग्नता की आध्यात्मिक प्रतिष्ठा थी । प्राचीन ग्रीसवासी भी भारतीय साधु के लिए ‘gymnosophist' शब्द का प्रयोग करते हैं जिसका अर्थ भी 'नग्न साधु' होता है । 2 किन्तु किसी एक ही सम्प्रदायविशेष के साधुओं के लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द का प्रयोग कब से रूढ हुआ यह कहना कठिन है । अतः बौद्ध पिटक पूर्व प्राचीन काल के सन्दर्भ में 'निर्ग्रन्थ' पद के अर्थघटन में अत्यन्त सचेत रहना चाहिए । निस्सन्देह, पिटक काल से यह शब्द किसी एक ही सम्प्रदायविशेष के साधुओं का, जिनको वर्तमान काल में हम जैन सम्प्रदाय के साधु कहते हैं उन्ही का वाचक है। ऋग्वेद में वातरशना मुनियों का वर्णन प्राप्त है । 'वातरशना मुनि' का अर्थ 'नग्न मुनि' स्वाभाविक है, अतः वातरशना मुनियों को 'निर्ग्रन्थ मुनि' कहते हैं । दशम शती के कश्मीरी पण्डित चक्रधर 2 जयन्त भट्ट विरचित 'न्यायमञ्जरी' की 'न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्ग' नामक अपनी टीका में 'मुनयो वातरशनाः' को समझाते हुए लिखा है : वात एव रशना वासो ग्रन्थनं येषां ते वासरशनाः, अतो वाससोऽभावादेव वातस्तेषां रशना, अत एव निर्ग्रन्था भयन्ते । परन्तु इसे आधार मान कर 'वातरशना मुनि जैन मुनि थे' कहना कहाँ तक उचित है ? यहाँ तक कह सकते हैं कि वातरशना मुनि श्रमण मुनि थे, क्योंकि विशेषतः श्रमण सम्प्रदाय के मुनि नग्न रहते थे, अतः श्रीमद् भागवत में स्पष्टतः कहा है वातरशनानां श्रमणानाम् ।' निष्कर्षतः वातरशना मुनि केवल यौगिक अर्थ में निर्ग्रन्थ माने जाय, रूढ अर्थ में नहीं । : जैन आगम स्वीकार करते हैं कि मुक्ति के लिए वीतराग बनना ही अनिवार्य है, बाह्य क्रियाकाण्ड आदि नहीं, और इस से किसी भी सम्प्रदाय का व्यक्ति मुक्ति प्राप्त कर सकता है । उन्हों ने अन्यलिङ्ग सिद्धों का स्वीकार किया है ।" अन्यलिङ्ग सिद्धों के स्वीकार में जैनों का औदार्य अन्यलिङ्ग तीर्थंकर के स्वीकार की ओर सरलता से लेजा सकता है । जिन का उपदेश रागमुक्ति का असरकारक मार्ग दिखाता हो, उन को तीर्थंकर के रूप में स्वीकार करने में कोई आपत्ति होनी नहीं चाहिए । पुरातन पुरुष ऋषभदेव वीतरागी योगी - तपस्वी थे । उन को विभिन्न परम्पराओंने अवतारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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