Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 17
________________ जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान अवन्ध्यवाक्या गुरवोऽहमल्पधीरिति व्यवस्यन् स्ववधाय धावति ॥ (द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका ६.६.) श्रुत धर्म या सिद्धान्त के सम्बन्ध में जो भी शंका हो या उत्पन्न हो उनको तर्क से, बुद्धि से, मनन से, दूर करना चाहिए, अन्यथा श्रुत धर्म या सिद्धान्त में जमी हुई भावरूप, विश्वासरूप, संप्रत्ययरूप श्रद्धा शिथिल हो जायेगी। शंकाओं को कदाग्रह और अन्धभक्ति से दबा देना नहीं चाहिए; तर्क से, बुद्धि से, मनन से उनका उन्मूलन करना चाहिए। मनन के पश्चात् श्रद्धा द्वितीय अर्थ में आकारवती बनती है। पालि-अंग्रेजी कोश (पालि टेक्स्ट सोसायटी) अनुसार 'आकार' शब्द का अर्थ है- 'reason, ground, account' । अतः आकारवती श्रद्धा का अर्थ होता है- हेतुओं से तर्कों से समर्थित, दृढीकृत श्रद्धा राग या मताग्रह का जो कुछ भी आवरण रह गया हो वह यहाँ अधिकांश दुर हो जाता है। तर्क से, मनन से विशेष चित्तशुद्धि, चित्तप्रसाद होता है। व्यक्ति की आध्यात्मिक उत्क्रान्ति में तर्क को-मनन को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने का कार्य दिया गया है। सर्व अध्यात्मविद्याओं में उसका महत्त्व स्वीकार किया गया है। किसी भी गुरु द्वारा तर्क की, बुद्धि की, मनन की अवमानना नहीं होनी चाहिए। श्रवण मनन के लिए सामग्री प्रस्तुत करता है, इस अर्थ में श्रवण मनन का आधार है, प्रतिष्ठा है। परन्तु श्रुत का ही स्वीकार करने में मनन बाध्य नहीं है, स्वीकार-अस्वीकार करने में मनन स्वतन्त्र है। अन्यथा मनन का कोई महत्त्व नहीं रहता। मनन के बाद की श्रद्धा को 'अवेच्चप्पसादा' कही गयी है,18 क्योंकि यहाँ तर्क से, मनन से श्रुत धर्म या सिद्धान्त विषयक शंकाएँ दूर होने से एवं दृष्टिराग का जो कुछ भी आवरण रह गया हो वह दूर होने से चित्त विशेष शुद्धि को, प्रसाद को प्राप्त होता है। ऐसी प्रसादरूप यह श्रद्धा है। श्रद्धा की यह तृतीय भूमिका है। यह भूमिका मनन पश्चात् किन्तु ध्यानपूर्व की है। मनन की भूमिका पार नहीं करनेवाले को ध्यान का अधिकार नहीं है। तर्क से, मनन से प्रतिष्ठित धर्म या सिद्धान्त ही ध्यान का विषय बनने की योग्यता पाता है। तर्क, मनन द्वारा परीक्षित और प्रतिष्ठित धर्म या सिद्धान्त के प्रति साधक में ध्यान करने की इच्छा जाग्रत होती है। वह ध्यान करने के लिए उत्साहित होता है, प्रयत्न करता है। दूसरे शब्दोंमें, वह सवितर्कसविचारात्मक प्रथम ध्यान में प्रवृत्त होता है। उस ध्यान में उस धर्म या सिद्धान्त का गम्भीर एवं सूक्ष्म तोलन वह करता है। पश्चात् वह विशेष आध्यात्मिक उत्साह और पराक्रमपूर्वक निर्वितर्कनिर्विचारात्मक द्वितीय ध्यान में प्रवेश करता है। अपना कार्य प्रथम ध्यान में पूर्ण होने से द्वितीय ध्यान में वितर्क और विचार पूर्णतः निरुद्ध होते हैं। इस द्वितीय ध्यान की भूमिका में चित्त वितर्क-विचारजन्य क्षोभ से आत्यन्तिकरूप से मुक्त होता है। इस ध्यान की उत्कृष्ट कोटि में चित्त परम शुद्धि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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