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जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) की विभावना
कहते हैं। प्रदेश देशमाप का अन्तिम घटक है। जैन परमाणुवाद की अन्य विशिष्ट मान्यता इस प्रकार है-एक परमाणु एक प्रदेश में रहता है, परन्तु द्वयणुक एक प्रदेश में भी रह सकता है और दो में भी। इस प्रकार उत्तरोत्तर क्रमशः संख्यावृद्धि होने पर त्र्यणुक, चतुरणुक ऐसे ही अनन्ताणुक स्कंध एक प्रदेश, दो प्रदेश, तीन प्रदेश, ऐसे ही असंख्यात प्रदेशवाले क्षेत्र में रह सकते हैं । अर्थात् अनंताणुक स्कंध को रहने के लिए अनन्त प्रदेशवाले क्षेत्र की आवश्यकता नहीं है। लोक (Universe) असंख्यातप्रदेशी होने के बावजुद उसमें अनन्त अणु समाविष्ट हो सकते हैं।45 बौद्ध परमाणुवाद और न्यायवैशेषिक परमाणुवाद के साथ जैन परमाणुवाद की तुलना करना रसप्रद है किन्तु यहाँ तुलना अप्रस्तुत है।। धर्मद्रव्य - जीव और पुद्गल की गति में सहायक बननेवाला द्रव्य धर्म है।46 जैसे मत्स्य जल के माध्यम की सहायता से गतिमान होता है वैसे ही जीव और पुद्गल धर्मद्रव्य के माध्यम की सहायता से गतिमान होते हैं । यह द्रव्य
लोकव्यापी है, व्यक्तिशः एक है और गतिरहित है। (३) अधर्मद्रव्य - जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक द्रव्य अधर्म है।47 यह
द्रव्य भी लोकव्यापी है, व्यक्तिश: एक है और गतिरहित है (४) आकाशद्रव्य - जो द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को रहने के
लिए स्थान देता है-अवगाह देता है वह आकाश है। वह भी व्यक्तिशः एक, गतिरहित और सर्वव्यापी है। आकाश के जिस भाग में जीव आदि पाँच द्रव्य रहते हैं उसे लोकाकाश कहा जाता है और इन द्रव्यों से रहित शून्य आकाश
को अलोकाकाश कहा जाता है। (५) कालद्रव्य - द्रव्यों के सूक्ष्म-स्थूल परिवर्तन होने में जो सहायक कारण है वह
कालद्रव्य है ।49 मन्द गति से एक आकाशप्रदेश से पास के ही दूसरे आकाशप्रदेश पर जाने के लिए परमाणु को जितना समय लगता है वह काल की अंतिम न्यूनतम इकाई है। उसे समय या क्षण कहा जाता है। क्षणों का प्रचय नहीं होता। अत: कालद्रव्य को प्रदेशप्रचय नहीं है। इसलिए काल को अस्तिकाय नहीं कहा जाता। शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं । कतिपय जैन चिन्तक काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते परन्तु द्रव्यों के परिवर्तनों (पर्यायों) को ही काल मानते हैं 152
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