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जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान अर्थ आध्यात्मिक साधना में उपयोगी सब तत्त्वों का ज्ञान यही होना चाहिए, नहीं कि त्रैकालिक समग्र भावों का साक्षात्कार ।'34
(२) 'सर्व' का एक अर्थ 'अखण्ड' होता है। जो ज्ञान अखण्ड वस्तु को जानता है वह ज्ञान सर्वज्ञ कहा जाता है। अर्थात् जो ज्ञान वस्तु को खण्डश: नहीं अपि तु अखण्ड रूप में जानता है वह ज्ञान सर्वज्ञ । ऐसा ज्ञान शुक्ल ध्यान की एकत्ववितर्कनिर्विचार भूमिका सिद्ध करनेवाले साधकको सम्भवित होता है। अर्थात् शुक्लध्यान की यह कोटि जिसने सिद्ध की हो उसको सर्वज्ञ कहा जा सकता है। ___'सर्वज्ञ' शब्द का एक प्राचीन अर्थ ध्यान में रखना रसप्रद है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में वात्स्यायन ने आत्मा को सर्वज्ञ कहा है। प्रत्येक की आत्मा सदा सर्वज्ञ है। चक्षु का विषय मात्र रूप है, श्रोत्र का विषय केवल शब्द है, इत्यादि । चक्षु रूप का ग्रहण करती है, श्रोत्र शब्द को ग्रहण करता है, इत्यादि । परन्तु आत्मा चक्षु द्वारा रूप को, श्रोत्र द्वारा शब्द को, स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा स्पर्श को, रसनेन्द्रिय द्वारा रस को, और घ्राणेन्द्रिय द्वारा गन्ध को, इस प्रकार पाँचों को ग्रहण करती है, अत: आत्मा सर्वज्ञ है। इस प्रकार
आत्मा का इन्द्रिय से भेद है। इन्द्रियाँ एक एक नियत विषय को ग्रहण करती हैं जब कि आत्मा सर्व (रूप आदि पाँचों) विषय को ग्रहण करती है।5 उपसंहार
समग्र चर्चा पर से इतना तो स्पष्ट है कि केवलज्ञान के उपर सर्वज्ञत्व का आरोप आसपास के वातावरण के दबाव में आ कर किया गया है। दूसरा, सर्वज्ञत्व में से
आत्यन्तिक नियतिवाद नितान्त फलित होता है इस लिए साधना और कर्मसिद्धान्त में विस रखनेवाले सर्वज्ञत्व का स्वीकार नहीं कर सकते, नहीं करना चाहिए। उपरान्त, सर्वज्ञात्व के स्वीकार में अनेक तार्किक दोष और आपत्तियाँ हैं। अत: केवलज्ञान पर से सर्वज्ञत्व का आरोप दूर कर के केवलज्ञान को रागरहित विशुद्ध ज्ञान, आत्मज्ञान या धर्मज्ञान के रूप में ही समझना चाहिए।
टिप्पण 1. एकत्ववितर्काविचारध्यानबलेन निःशेषतया ज्ञानावरणादीनां घातिकर्मणां प्रक्षये सति... 'केवलम्'
इत्यागमे प्रसिद्धम् । प्रमाणमीमांसास्वोपज्ञवृत्ति, १.१.१५. मोहक्षयात् ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । तत्त्वार्थसूत्र, १०.१ मोहक्षयादिति पृथक्कारणं क्रमप्रसिद्ध्यर्थम् । यथा गम्येत पूर्वं मोहनीयं कृत्स्नं क्षीयते । ततोऽन्तर्मुहूर्तं छद्मस्थवीतरागो भवति । ततोऽस्य ज्ञानदर्शनावरणान्तरायप्रकृतीनां तिसृणां युगपत् क्षयो भवति । तत्त्वार्थभाष्य, १०.१.
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