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केवलज्ञान
61 एक व्यक्ति के व्यक्तित्व से दूसरी व्यक्ति का व्यक्तित्व पृथक् होने का मुख्य कारण यह है कि एक व्यक्ति के ज्ञान, चेतसिक भाव, अध्यवसाय आदि का साक्षात् अनुभव या संवेदन दूसरी व्यक्ति नहीं कर सकती, यह हकीकत है। अगर इन का संवेदन दूसरी व्यक्ति करे तो वह दूसरी व्यक्ति प्रथम व्यक्ति के व्यक्तित्व को धारण कर ले और एक ही व्यक्ति में दो व्यक्तित्वों का द्वन्द्व (dual personality) हो जाय, जो इष्ट नहीं माना जाता। सर्वज्ञ का ज्ञान अनुभवात्मक अर्थात् साक्षात्कारात्मक होता है और इसी लिए सर्वज्ञ सब जीवव्यक्तियों के ज्ञान, भाव और अध्यवसायों का संवेदन करता है, परिणामस्वरूप उसमें अनन्त व्यक्तियों के व्यक्तित्वों का धारण आ पड़ेगा, वह multi-personality बन जायगा, यह तो अत्यन्त अनिष्ट कहलाता है। जैनों ने सर्वज्ञत्व की जो व्याख्या की है वह किसी भी तरह स्वीकार्य बने ऐसी नहीं है। अत: जैन चिन्तकों ने उस पर पुख्त विचार कर उस व्याख्या को बदल देना चाहिए।
दूसरा, जैनों ने चक्षु इत्यादि इन्द्रियों के बिना रूप आदि का अनुभव करने के लिए सर्वज्ञ की आत्मा के प्रत्येक प्रदेश को, अंश को सर्वाक्षगुणसम्पन्न माना है, तो साथ साथ उनको यह भी मानना पड़ेगा कि सर्वज्ञ की आत्मा सर्व लोक में व्याप्त रहती है, अन्यथा सर्वाक्षगुणसम्पन्न आत्मप्रदेशों द्वारा वे समुचे लोक में व्याप्त रूपी द्रव्यों के सर्व रूप आदि गुणों का अनुभव कैसे कर सकेंगे ? मुक्त सर्वज्ञ को अन्तिम शरीर से किंचित् न्यून परिमाणवाला होकर सिद्धशिला में विराजमान नहीं होना चाहिए, और मुक्ति पूर्व तो सर्वज्ञ की आत्मा उनके शरीर के परिमाण जितना ही परिमाणवाली होती है, उसके बदले उसको लोकव्यापी परिमाण धारण करना चाहिए। इस तरह ये सब निराधार, विचित्र और परस्पर मेल रहित, तर्क हीन कोरी कल्पनाएँ जैनोंने की हैं। विचारशील जैनोने उनका विरोध करना चाहिए, समर्थन नहीं। सर्वज्ञत्व का अर्थ क्या होना चाहिए?
इन सभी आपत्तियों से बचने के लिए सर्वज्ञत्व का अर्थ बदलना आवश्यक है। अर्थ नीचे दिये गये हैं - -
(१) जैन धर्मदर्शन अध्यात्मविद्या है, अत: इस अध्यात्म को दृष्टि में रख कर अध्यात्मविद्या के आदर्शरूप पूर्णता पर पहुँचने के लिए जो कुछ जानना आवश्यक है, उन सब को जाननेवाला ज्ञान ही सर्वज्ञत्व । सर्वज्ञत्व का इस प्रकार अर्थ करने से सर्वज्ञत्व और धर्मज्ञत्व दोनों समानार्थक बनेंगे। इस प्रकार अध्यात्मविद्या में धर्मज्ञत्व ही सर्वज्ञत्व है। इस सन्दर्भ में पण्डित सुखलालजी ने जो लिखा है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वे लिखते हैं : “इसलिए मेरी राय में जैन परम्परा में सर्वज्ञत्व का असली
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