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केवलज्ञान कि जिस वस्तु को जानना-देखना हो उसे उपयुक्त ध्यान लगाकर जानना-देखना । इसका तात्पर्य यह कि आध्यात्मिक साधना से इस अर्थ में सर्व को जानने और देखने की शक्ति (लब्धि, सिद्धि) साधक प्राप्त करता है। परन्तु वह कभी सर्व को युगपत् जानता-देखता नहीं है । वह वही वस्तु को जानता-देखता है जिसे वह उस समय जानना देखना चाहता हो और वह भी योग्य ध्यान लगाने के पश्चात् ही वह उस वस्तु को जानता देखता है। इस अर्थघटन को उत्तरकालीन बौद्ध ग्रन्थों में भी समर्थन मिलता है। 'मिलिन्दप्रश्न' में नागसेन कहता है : भगवा सब्बञ्जू, न च भगवतो सततं समितं आणं दस्सनं पच्चुपट्टितं, आवज्जनपटिबद्धं भगवतो सब्बत्रुतत्राणं, आवज्जित्वा यदिच्छति जानातीति । (संपा. वाडेकर, मुंबई, १९४०, पृ. १०५) यहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा है कि भगवान बुद्ध सर्वज्ञ हैं, परन्तु वे सर्व वस्तुओं को सतत जानते नहीं है, किन्तु जिसे जानना चाहते हैं उसे ध्यान लगाकर जानते हैं। अपने 'तत्त्वसंग्रह' ग्रन्थ में शान्तरक्षित लिखते हैं :
यद् यदिच्छति बोर्बु वा तत् तद्वेत्ति नियोगतः ।
शक्तिरेवंविधा ह्यस्य प्रहीणावरणो ह्यसौ॥ श्लोक ३६२६ (बुद्ध को जो जो वस्तु जानने की इच्छा होती है वह वह वस्तु को वे अवश्य जानते हैं, ऐसी उनमें शक्ति है क्योंकि उनके आवरण नष्ट हो चुके हैं।) परन्तु समकाल या कुछ पश्चात् महासांघिक बौद्धोंने तो युगपद् सर्व को जानने के अर्थ में सर्वज्ञत्व का स्वीकार किया। इस प्रकार जो जानना हो उसे ही जानने के अर्थ में स्थविरवाद में सर्वज्ञत्व का स्वीकार हुआ था, उस अर्थ को परिवर्तित कर के एक साथ सर्व वस्तुओं के ज्ञान के अर्थ में सर्वज्ञत्व का महासांघिकों ने स्वीकार किया।
सांख्य परम्परा और उसके समानतन्त्र योग की परम्परा अति प्राचीन है। यह हकीकत है कि बुद्ध सांख्याचार्य आलार कालाम के और योगाचार्य रुद्रक रामपुत्र के कुछेक समय तक शिष्य रहे थे। परन्तु सांख्य और योग के व्यवस्थित लिखित प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । सांख्य का व्यवस्थित निरूपण करनेवाला सब से प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ ईश्वरकृष्णकृत 'सांख्यकारिका' करीब ई.स. की प्रथम शताब्दी का है, जब कि योग का व्यवस्थित निरूपण करनेवाला सब से प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ ई.स. पूर्व द्वितीय शताब्दी का है, और वह है पतंजलि विरचित 'योगसूत्र' नामक ग्रन्थ । तथापि सांख्य-योग परम्परा अति प्राचीन है। हम इन प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थों के आधार पर उस परम्परा में सर्वज्ञत्व की विभावना का निरूपण करेंगे। सांख्य-योग की प्राचीन परम्परा अनुसार विवेकख्याति (विवेकज्ञान) पूर्ण होने पर अर्थात् पूर्णतः सिद्ध होने पर
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