Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 67
________________ 58 जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान (absolutely predetermined and unalterably fixed) है, उसमें किंचित् भी परिवर्तन की संभावना नहीं है और मैं अपने भावी को अपनी इच्छानुसार निर्मित कर सकता हूँ, यह अपनी मान्यता का कारण तो मेरा अपने भावी का अज्ञान ही है, जो जो पसंदगी में करता हूँ उस पसंदगी को मुझे करना ही है यह नियत ही था, अज्ञान के कारण मैं मानता हूँ कि वह पसंदगी मैंने स्वतन्त्ररूप से अपनी इच्छानुसार की। सर्वज्ञत्व में से ऐसा आत्यन्तिक नियतिवाद अनिवार्यरूप से फलित होता ही है। कतिपय दिगम्बर पण्डित ऐसा स्वीकार भी करते हैं। पण्डित हुकुमचन्द भारिल का क्रमबद्ध पर्यायवाद आत्यन्तिक नियतिवाद ही है। किन्तु जैन आगमों में तो भगवान महावीर को गोशालक के आत्यन्तिक नियतिवाद का दृढतापूर्वक प्रतिषेध करते हुए वर्णित किया है। सर्वज्ञत्व स्वीकार करने से आत्यन्तिक नियतिवाद अपने आप आता ही है। और आत्यन्तिक नियतिवाद कर्मवाद में स्वीकृत पुरुष प्रयत्न, स्वतन्त्र इच्छाशक्ति, नैतिक उत्तरदायित्व, आत्मसुधारणा और साधना का पूर्णत: विरोधी है एवं परिणामत: कर्मवाद का भी पूर्णरूपेण विरोधी है। जो कर्मसिद्धान्त को बराबर नहीं समझते वे आक्षेप करते हैं कि कर्मसिद्धान्त आत्यन्तिक नियतिवाद की ओर ले जाता है, उसमें स्वतन्त्र इच्छाशक्ति इत्यादि को अवकाश ही नहीं है। पूर्व कर्मों के कारण जीव वर्तमान में जो कुछ है और करता है वह है और करता है, वर्तमान कर्म उसके भावी व्यक्तित्व और क्रियाओं को नियत करेंगे और इस प्रकार चलता ही रहेगा। जीव सम्पूर्णरूपेण पूर्व कर्मों से बद्ध है, इतना ही नहीं उनसे उसका चेतसिक और शारीरिक व्यवहार-उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व-नियत है। इसमें पुरुषस्वातन्त्र्य या स्वतन्त्र इच्छाशक्ति को अवकाश ही कहाँ ? और भी, इसमें मुक्ति की सम्भावना भी कहाँ है ? यह शंका उचित नहीं है। यह कर्मसिद्धान्त की अपूर्ण समझ से उपस्थित हुई है। पूर्व कर्म अनुसार जीव को भिन्न भिन्न शक्तिवाले मन, शरीर और बाह्य साधन प्राप्त होते हैं एवं वह भिन्न भिन्न वातावरण और परिस्थिति में आ पडता है इतना ही, परन्तु प्राप्त साधनों का उपयोग कैसे और कैसा करना तथा वातावरण और परिस्थिति विशेष में कैसा प्रत्याघात देना वह उसके हाथ की बात है, उसमें वह स्वतन्त्र है, ऐसा कर्मसिद्धान्त मानता है। और भी, जीव अपने प्रयत्न से पूर्वकर्मों के प्रभाव को न्यूनतम या नष्ट कर सकता है, ऐसा भी कर्मसिद्धान्त में स्वीकृत है। जीव पर कर्म का नहीं अपि तु कर्म पर जीव का आधिपत्य स्वीकृत है । इस प्रकार कर्मसिद्धान्त आत्यन्तिक नियतिवाद का विरोधी है। अत: उससे ही सर्वज्ञत्व का भी विरोधी है। सर्वज्ञत्व और कर्मसिद्धान्त का सहावस्थान संभवित नहीं है। वे दोनों साथ में नहीं रह सकते । दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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