Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ द्वितीय व्याख्यान जैनदर्शन में मतिज्ञान चार सोपान एवं मत्यादि ज्ञानपंचक जैन पाँच प्रकार के ज्ञान का स्वीकार करते हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान और केवलज्ञान । इन में प्रथम दो ज्ञान के क्रम में परिवर्तन किया जाय तो श्रुत, मति, अवधि, मनः पर्याय और केवलज्ञान होते हैं । अब स्मरण करें उन चार औपनिषदिक आध्यात्मिक सोपानों का यानि दर्शन, श्रवण, मनन और निदिध्यासन का । द्वितीय सोपान श्रवण ही श्रुत है । तृतीय सोपान जो मनन है वही मति है । चतुर्थ सोपान निदिध्यासन में ( ध्यान में ) अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान समाविष्ट हैं, क्योंकि ये तीनों केवलिज्ञान हैं, योगिज्ञान हैं । केवलज्ञान तो शुक्लध्यानजन्य है अवधि और मनः पर्याय ध्यानजन्य है, ऐसा जैन स्पष्टतः नहीं कहते । किन्तु जैन का अवधिज्ञान ही पातंजल योग का अतीत- अनागत सूक्ष्म-व्यवहित- विप्रकृष्टज्ञान और बौद्ध दिव्यचक्षुज्ञान है और वहाँ वह ध्यानजन्य है । जैन मनः पर्यायज्ञान ही पातंजल योग का परचित्तज्ञान और बौद्ध चेतोपर्यज्ञान है और वहाँ वह ध्यानजन्य है । अतः जैनदर्शन को भी इन दो ज्ञानों का कारण आन्तरिक शुद्धि सहित विशेष ध्यान-समाधि को मानना चाहिए । जैन प्रमाणशास्त्र निर्माण करने के लिए मनन का मतिज्ञान में परिवर्तन मूल धातु गम् (जाना) से गमन और गति दो नाम बनते हैं । उनका अर्थभेद नहीं है । उसी प्रकार मूल धातु मन् ( सोचना) से मनन और मति दो नाम बनते हैं । उनका भी अर्थभेद नहीं हैं। उपनिषदों में मनन के लिए 'मति' शब्दप्रयोग अनेक बार हुआ है। उसका निर्देश हमने किया है । तदुपरान्त, पूज्यपादने 'मति' का अर्थ मनन दिया है, इस की नोंध भी हम ले चुके हैं। श्रद्धा से प्रेरित मनुष्य गुरु के पास जाकर उपदेश सुनता है । यह श्रवण है, श्रुत है । पश्चात् जो सुना उस पर मनन करता है । यह मति है । मनन करनेवाला व्यक्ति अनायास ही प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान इत्यादि प्रमाणों का प्रयोग करता है । वह जिन प्रमाणों का प्रयोग करता है, उसे उन प्रमाणों के सम्बन्ध में शास्त्रीय ज्ञान होना आवश्यक नहीं है और उसे यह ध्यान भी नहीं होता कि उसने कौन कौन से प्रमाणों का प्रयोग किया है और उन प्रत्येक का स्वरूप क्या है व प्रत्येक का क्या नाम है ? अलबत्त, यह बात सत्य है कि मननप्रक्रिया में तर्कशास्त्रीय दृष्टि बिना या उस दृष्टि की सभानता के बिना वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82