Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 47
________________ 38 जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान मति प्रकार परोक्ष प्रमाण जैन तार्किकोंने इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क और अनुमान को परोक्ष प्रमाण माने हैं क्योंकि इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को साक्षात् होनेवाला वस्तु का यथार्थ ज्ञान उनके मतानुसार प्रत्यक्ष है। ___अब हम मतिज्ञान के इन्द्रियप्रत्यक्ष आदि प्रकार के विषय में जैन तार्किकों ने जो कहा है उसको संक्षेप में कहने जा रहे हैं। इन्द्रियप्रत्यक्ष - इन्द्रियप्रत्यक्ष के बारे में महत्त्वपूर्ण बातों की चर्चा की गई हैं। शेष कतिपय बात की नोंध करते हैं। जैन प्रमाणशास्त्र में जैन तार्किकोंने प्रमाणशास्त्रीय दृष्टि से इन्द्रियप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में स्वीकृत किया है - जो कि परमार्थत: तो वह परोक्ष प्रमाण है, किन्तु वे उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं।25 वे व्यवसायात्मक ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं अत: अवाय को ही प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। इहा में तो अभी निश्चय नहीं हुआ है, परन्तु निश्चय के लिए मात्र विचारणा होती है। अत: ईहा भी प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मानी जाती। और अवग्रह में तो निश्चय की ओर ले जानेवाली विचारणा का भी अभाव है। अवग्रह निर्विकल्प ज्ञान है। अत: वह भी प्रमाण की कोटि में नहीं आता है। बौद्ध मात्र निर्विकल्प प्रत्यक्ष को ही प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। जैन तार्किकों ने इस बौद्धमत का बलपूर्वक समर्थ खण्डन किया है ।26 स्मृति - योग्य निमित्तों की उपलब्धि से पूर्वानुभूत विषय के संस्कार जाग्रत होने से उस विषय का पुनः मनःपटल पर आना स्मृति है ।27 अत: स्मृति को संस्कारमात्रजन्य कही गई है। इस प्रकार स्मृति नूतन ज्ञान नहीं है, किन्तु अधिगत का ही ज्ञान है। स्मृति में हम संस्कारोबोध द्वारा पूर्वानुभव को ताजा करते हैं और पूर्वानुभूत विषय का स्मरण करते हैं। यह बताता है कि स्मृति अधिगतग्राही है और अर्थजन्य नहीं है। इसी कारण अधिकांश अजैन तार्किक स्मृति को प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते। जैन तार्किक स्मृति गृहीतग्राही होने पर भी उसे प्रमाण मानते हैं, क्योंकि वह अविसंवादी है।28 अगृहीतग्राहित्व और गृहीतग्राहित्व प्रमाणता या अप्रमाणता का कारण नहीं है। प्रमाणता का कारण तो अविसंवाद है। और अविसंवाद तो अन्य ज्ञानों के सदृश स्मृति में भी है। तदुपरान्त, समस्त जगत का व्यवहार स्मृतिमूलक है। मानवप्रगति में अन्य ज्ञानों की अपेक्षा स्मृति का विशिष्ट प्रदान है। उपरान्त, स्मृति ‘तत्' शब्दोल्लेखपूर्वक विषय को ग्रहण करती हैं ।29 'तत्' शब्दोल्लेख पूर्वानुभव में होता नहीं है । इस प्रकार वह पूर्वानुभूत विषय को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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