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जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान प्रक्रिया आगे बढ़ती है। 'व्यंजन' और 'अर्थ' का ऐसा अर्थ जैन परम्परा में भी प्रसिद्ध है। देखिए निम्नलिखित प्रसिद्ध गाथा -
काले विणये बहुमाणे उवहाणे तह अणिण्हवणे।
वंजण अत्थ तदुभए अट्ठविहो णाणमायारो ॥ जैन परम्परा में जहाँ जहाँ व्यंजन' और 'अर्थ' का प्रयोग साथ साथ हुआ है वहाँ वहाँ उनका अर्थ क्रमशः ‘शब्द' और 'meaning' होता है। तत्त्वार्थसूत्रभाष्य (१.३५) पर अपनी टीका में सिद्धसेन लिखते हैं - व्यञ्जनं शब्दः, तस्यार्थः अभिधेयः वाच्यः। ___ तदुपरांत जैन परम्परा में अध्यापनपद्धति में प्रथम शिष्य को सूत्र, गाथा के शब्दों का ही ग्रहण कराया जाता है, उसे योग्य उच्चारण सहित कंठस्थ कराया जाता है; तत् पश्चात् उसे गाथा के अर्थ को समझाया जाता है, अर्थ का ग्रहण कराया जाता है। इस प्रकार शिष्य प्रथम व्यंजन और बाद में अर्थ का ग्रहण करता है।
मनन के आधार और आदि ऐसे व्यंजनावग्रह (शब्दग्रहण) और अर्थावग्रह (शब्दार्थग्रहण) को इन्द्रियार्थसन्निकर्षावग्रह और वस्तुअवग्रह में परिवर्तित करके जैन चिन्तकोंने इन्द्रियप्रत्यक्ष के अपने सिद्धान्त में निर्विकल्प प्रत्यक्ष पूर्व एक भूमिका दाखिल की, इन्द्रियार्थसन्निकर्ष की चर्चा दाखिल की और प्रमुखत: तो इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व-अप्राप्यकारित्व की समस्या की विचारणा दाखिल की। श्रुतज्ञान व मतिज्ञान के क्रम एवं विषय __ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के ग्राह्य विषयों के सम्बन्ध में निम्न सूत्र है : मतिश्रुतयोः निबन्ध: सर्वद्रव्येषु असर्वपर्यायेषु । (१.२७) अर्थात्, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का व्यापार सर्व द्रव्यों में है, परन्तु सर्व द्रव्यों के सर्व पर्यायों में नहीं है, अल्प पर्यायों में है। यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि अत्यन्त अमूर्त द्रव्यों धर्मद्रव्य आदि और उनके पर्याय मतिज्ञान के विषय किस प्रकार बन सकते हैं ? क्या वे इन्द्रियप्रत्यक्ष के विषय बन सकते हैं ? स्मृति के विषय बन सकते हैं ? प्रत्यभिज्ञा के विषय बन सकते हैं ? चिन्ता (या तर्क) के विषय बन सकते हैं ? अनुमान के विषय बन सकते हैं ? उनके लिए अत्यन्त अमूर्त द्रव्यों को विषय बनाना कठिन है। किन्तु यदि मति को मनन के रूप में समझा जाय तो समाधान सरल हो जाता है। गुरुमुख से मूर्त-अमूर्त सभी द्रव्यों के बारे में तथा उनके परिमित पर्यायों के बारे में सुनने के बाद (श्रवण पश्चात्) वे सभी द्रव्य और पर्याय मनन के विषय बन सकते हैं । इस सन्दर्भ में टीकाकार सिद्धसेनगणि
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