Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 56
________________ तृतीय व्याख्यान केवलज्ञान केवलज्ञान के स्वरूप की स्थिर हुई जैन मान्यता एकत्ववितर्काविचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान के बल से मोहनीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय होने से अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् साधक वीतरागी बनता है, बाद में शीघ्र ही ज्ञानावरणीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय होता है और फलत: केवलज्ञान का आविर्भाव होता है। केवलज्ञान अपरोक्ष अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान है क्योंकि वह इन्द्रिय और मन के माध्यम से जानता नहीं है किन्तु साक्षात् जानता है। आत्मा इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना साक्षात् जानती है। अत: केवलज्ञान में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन क्रमिक अवस्थाओं का स्थान नहीं है। वह सभी द्रव्य और उनके सभी पर्याय को जानता हैं । वह सभी द्रव्यों की सभी व्यक्तियों को और उनकी त्रिकालवर्ती सर्व अवस्थाओं को जानता है। सभी द्रव्यों की सभी व्यक्ति अनन्त हैं और उन प्रत्येक की अवस्थाएँ भी अनन्त हैं। अनन्त ज्ञेयों का क्रमश: ग्रहण तो नहीं हो सकता। अतः केवलज्ञान अनन्त ज्ञेयों को युगपत् जानता है। जिसे केवलज्ञान प्राप्त होता है उस आत्मा के सर्व प्रदेश सर्वाक्षगुणों से समृद्ध बन जाते हैं। अर्थात्, एक एक इन्द्रिय एक एक गुण को जानती है, जैसे आँख रूप को ही, नाक गन्ध को ही इत्यादि, जब कि केवलज्ञानी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश रूप आदि सभी विषय को जानता है। इस प्रकार केवलज्ञान सर्वज्ञत्व है। सर्वज्ञत्व की सिद्धि के लिए दिये गये प्रमुख तर्क केवलज्ञान का सर्वज्ञत्व के साथ अभेद करने के बाद जैन तार्किक सर्वज्ञत्व की सिद्धि के हेतु मुख्य तर्क इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं - (१) जो वस्तु सातिशय होती है अर्थात् तरतमभावापन्न होती है वह क्रमश: वृद्धिमान होकर कहीं न कहीं पूर्णता को प्राप्त करती है, जैसे परिमाण । परिमाण छोटा भी है और तरतमभाव से बड़ा भी है। अत: वह आकाश में पूर्णता को प्राप्त करता हुआ दिखाई देता है। यही दशा ज्ञान की भी है। ज्ञान कहीं अल्प है तो कहीं अधिक है - इस प्रकार तरतमभाववाला दिखाई देता है। अत: वह कहीं न कहीं सम्पूर्ण भी होना चाहिए। जिस में वह पूर्णकलाप्राप्त होगा, वही सर्वज्ञ । हेमचन्द्राचार्यने प्रमाणमीमांसा में यह युक्ति दी है।' (२) जो अनुमेय होता है वह किसी को तो प्रत्यक्ष होगा ही। सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती - कालिक और दैशिक दृष्टि से - पदार्थ किसी को प्रत्यक्ष होते ही हैं क्योंकि वे पदार्थ अनुमेय हैं। (३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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