Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 57
________________ जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान सूर्यग्रहण आदि के ज्योतिर्ज्ञान के उपदेश की यथार्थता और अविसंवादिता सर्वज्ञत्व सिद्ध करती है।' (४) सर्वज्ञ है क्योंकि बाधक प्रमाणों की असंभवितता का निश्चय है।10 सर्वज्ञ का बाधक प्रमाण प्रत्यक्ष नहीं है। प्रत्यक्ष के आधार पर जो व्यक्ति कहता है कि कोई देश या कोई काल में कोई सर्वज्ञ नहीं है, वह व्यक्ति स्वयं ही सर्वज्ञ बन जायेगा। प्रत्यक्ष के बल पर सर्व देश और सर्व काल के सर्व पुरुषों का ज्ञान सर्वज्ञ के सिवा अन्य किसी को कैसे हो सकता है ? सर्वज्ञ का बाधक अनुमान भी नहीं है। कतिपय लोग सर्वज्ञ के बाधक अनुमान के रूप में इस प्रकार अनुमान देते हैं - अर्हन्त सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वे वक्ता है और पुरुष है, राहदारी सामान्य आदमी के समान। यह अनुमान सर्वज्ञ का बाधक नहीं है क्योंकि सर्वज्ञत्व और वक्तृत्व का कोई विरोध नहीं है। एक ही व्यक्ति वक्ता भी हो सकती है और सर्वज्ञ भी हो सकती है। यदि ज्ञान की वृद्धि के साथ वचनों का ह्रास दिखाई देता होता तो ज्ञान की उत्कृष्टता में वचनों का अत्यन्त ह्रास होता, परन्तु वास्तव में तो ज्ञान की वृद्धि के साथ वचन की भी प्रकर्षता दिखाई देती है। सर्वज्ञता का पुरुष के साथ भी कोई विरोध नहीं है, परन्तु सर्वज्ञत्व का राग के साथ विरोध है। अत: जिस पुरुष में राग होता है वहाँ सर्वज्ञत्व नहीं होता। सर्वज्ञत्व का वीतरागता के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। अत: जो पुरुष वीतराग होगा वह सर्वज्ञ होगा ही। इस प्रकार प्रस्तुत अनुमान सर्वज्ञ का बाधक वहीं है। आगम भी सर्वज्ञ का बाधक नहीं है। जैन आगम सर्वज्ञ का समर्थन करते हैं। (५) वर्तमान में प्रायः सभी पुरुष रागी दिखाई देते हैं, कोई वीतरागी दिखाई नहीं देता, तो अतीत या भविष्य में कोई पूर्ण वीतरागी की सम्भावना कैसे हो सकती है ? और वीतरागी सम्भवित नहीं हो तो सर्वज्ञ कहाँ से सम्भवित होगा? इनका उत्तर यह है कि आत्मा अनन्तज्ञानस्वरूप है। रागादि आत्मा का स्वरूप नहीं है। अत: योगसाधना और मैत्री आदि भावना से उनका उच्छेद सम्भवित है और फलत: आत्मा के अनन्तज्ञान का पूर्ण प्राकट्य सम्भवित है । अत: सर्वज्ञ सम्भवित है।। सर्वज्ञत्व सिद्धि के लिए दिये गये तर्कों का खोखलापन सर्वज्ञत्व सिद्ध करने के हेतु दिये गये तर्क नितान्त खोखले हैं, यथा-(१) जीव में ज्ञान की तरतमता दिखाई देती है अत: जीव में ज्ञान परमोत्कृष्ट कोटि को प्राप्त करता है, ऐसा कहा गया है। जीव में ज्ञान की तरतमता के आधार पर से जीव में ज्ञान परमोत्कृष्ट कोटि को प्राप्त करता है, ऐसा जैन सिद्ध करना चाहते हैं । अत: जहाँ गुण की तरतमता हो वहीं वह गुण परमोत्कृष्ट कोटि को प्राप्त करता है, यह दिखाना चाहिए। किन्तु यह बताने कि लिए परिमाण का जो दृष्टान्त दिया गया है, वह स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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