Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 39
________________ जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, चिन्ता, अनुमान जैसे अत्यन्त भिन्न स्वभाववाले ज्ञानों के लिए विभिन्न ज्ञानावरणीय कर्म की कल्पना नहीं की गयी तो श्रुत के लिए अलग ज्ञानावरणीय कर्म की कल्पना क्यों की गयी ? जैन इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति आदि को स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं तथापि उनके आवरणीय कर्म स्वतन्त्र नहीं माने हैं, तो फिर श्रुत का स्वतन्त्र आवरणीय कर्म क्यों माना गया ? तदुपरान्त, इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति आदि को जैन मुख्यतया परोक्ष मानते हैं, उसी तरह श्रुत भी परोक्ष ही है। तो श्रुत को मति के वर्ग से अलग क्यों रखा गया ? श्रुत का मति में समावेश कर के श्रुत को भी मति क्यों नहीं माना ? इस प्रश्न का वास्तविक उत्तर यह है कि जैनसम्मत मति, श्रुत आदि पाँच ज्ञानों की मान्यता के मूल में औपनिषदिक चार सोपानों की योजना है और इस योजना में मनन पूर्वे मनन से अलग श्रवण सोपान अनिवार्य है, इस मूल हकीकत ने ही जैनों को मति में श्रुत का समावेश करने से रोका हो ऐसा प्रतीत होता है। औपनिषदिक चार सोपानों में द्वितीय और तृतीय सोपान श्रवण और मनन के स्थान पर जैनोंने अपने ज्ञानपंचक के वर्गीकरण में श्रुत और मति को स्थान दिया है (अलबत्त, क्रम ऊलटा दिया है) । मनन पूर्वे श्रवण की एक स्वतन्त्र सोपान के रूप में अनिवार्यता का प्राचीन अवशेष जैनों के ज्ञानपंचक में मति से श्रुत की स्वतन्त्र स्वीकृति में रह गया है, अन्यथा श्रुत को भी मति में समाविष्ट करने में उनकों कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । इससे यह भी निश्चित रूप से फलित होता है कि मतिज्ञानावरणीय कर्म, श्रुतज्ञानावरणीय कर्म, इत्यादि ज्ञानावरणीय कर्म के भेदों की व्यवस्था भी इतनी प्राचीन नहीं है जितनी प्राचीन चार सोपानों की व्यवस्था है। मतिज्ञान का निमित्तकारण और मनन का निमित्तकारण जैन मतिज्ञान (मति-अ) के साधकतम कारण की चर्चा करते हैं। साधकतम कारण के लिए उमास्वाति 'निमित्तकारण' शब्द का प्रयोग करते हैं । मतिज्ञान (मति-अ) में समाविष्ट इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति इत्यादि ज्ञानों में से कोई इन्द्रियनिमत्तक है, कोई मनोनिमित्तक है, तो कोई उभयनिमित्तक है। अतः उमास्वाति लिखते हैं-तद् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । (१-१४)। यह सूत्र बताता है कि मति (मति-अ) का निमित्तकारण इन्द्रिय और अनिन्द्रिय (मन) है। इस सूत्र की समजती भाष्य में निम्न प्रकार है। मति के दो भेद होते हैं-इन्द्रियनिमित्त मतिज्ञान और मनोनिमित्त मतिज्ञान । मात्र इन्द्रियनिमित्त मतिज्ञान तो निर्विकल्प इन्द्रियप्रत्यक्ष ही है, क्योंकि वह मनोव्यापार रहित है, विचारशून्य है । सविकल्प इन्द्रियप्रत्यक्ष तो इन्द्रिय और मन उभय निमित्तकारणों से जन्य हैं, अतः हम उसका समावेश कहाँ करेंगे ?- इन्द्रियनिमित्त मतिज्ञान में या मनोनिमित्त मतिज्ञान में ? संभवित उत्तर यह है कि उसका समावेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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