Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 42
________________ जैनदर्शन में मतिज्ञान इन्द्रियनिमित्त मतिज्ञान के बीस भेद हुए । यदि स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इन प्रत्येक के अवग्रहादि चार चार भेद माना जाय तो अन्य सोलाह भेद होते हैं। किन्तु उमास्वाति ने अन्य चार भेद ही माने हैं। अर्थात् उन्होंने २० + ४ = २४ भेद ही माने हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि उन्होंने मनोनिमित्त मतिज्ञानों में से मात्र एक के ही अवग्रहादि चार भेद माने हैं। 7 यह एक मनोनिमित्त मतिज्ञान कौन सा है ? जैन चिन्तक स्मति आदि चार में से किसी को भी इस मनोनिमित्त मतिज्ञान मानते हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। उन्होंने तो सुखादिविषयक मनोनिमित्त मानस प्रत्यक्ष रूप मनोनिमित्त मतिज्ञान के अवग्रहादि चार भेद माने हैं।18 बाह्येन्द्रियजन्य पाँच प्रत्यक्षों में अवग्रह आदि चार भूमिकाएँ स्वीकृत भी हैं और स्पष्टत: घटित भी की गई हैं। मानस प्रत्यक्ष में ये चार भूमिकाएं स्वीकृत हैं किन्तु किसी ने घटित नहीं की है। स्मृति आदि चार मनोनिमित्त मतिज्ञानों में तो अवग्रह आदि चार भूमिकाओं का स्वीकार ही नहीं किया गया है तो घटित करने की बात ही नहीं रहती। इस अव्यवस्था का कारण क्या है ? वास्तव में तो जैन चिन्तकों ने मतिज्ञान के प्रत्येक प्रकार में इन चार भूमिकाओं का स्वीकार करना चाहिए और घटित भी करना चाहिए किन्तु बाह्येन्द्रियप्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य किसी भी मतिप्रकार में ये भूमिकाएँ स्वीकारना या घटित करना सम्भव नहीं हैं। वस्तुत: अवग्रह आदि ये चार भूमिकाएँ मनन की है। जब जैन चिन्तकों ने मनन को मतिज्ञान नामक खास विशेष ज्ञान में परिवर्तित कर दिया तब उन्होंने मनन की भूमिकाएँ भी मतिज्ञान में संक्रान्त (transfer) कर दी, जिससे अव्यवस्था प्रतीत होती है। मनन की चार भूमिकाओं को इन्द्रियप्रत्यक्ष में लाग करके जैन चिन्तकोंने अपने तर्कशास्त्र में इन्द्रियप्रत्यक्ष का अपना विशिष्ट सिद्धान्त निर्माण किया। अवग्रहादि भूमिकाएँ मनन की है ___ अवग्रह आदि चार भूमिकाओं को मनन की भूमिकाओं के रूप में सरलता से समझा सकते हैं और वे मनन की भूमिकाएँ हैं इसका स्पष्ट सूचन प्राचीन अंग आगम ज्ञाताधर्मकथा (प्रथम अध्ययन, ३५) में उपलब्ध है। वहाँ यह वाक्य आता है - तए णं से सुमिणपाढगा सेणियस्स रणो एवमटुं सोच्चा णिसम्म हट्ट जाव हियया तं सुमिणं ओगिण्हंति । ओगिण्हंता ईहां अणुपविसंति... । (शृत्वा... अवगृह्णन्ति । अवगृह्य ईहाम् अनुप्रविशन्ति...।) रानी को स्वप्न आता है। रानी राजा को बताती है। राजा स्वप्नपाठकों को बुलावा भेजते हैं, उनको स्वप्न से अवगत कराते हैं और अर्थघटन करने को कहते हैं। सर्व प्रथम स्वप्नपाठक राजा-रानी जो कहते हैं वह सुनते हैं (श्रवण)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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