Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ 31 जैनदर्शन में मतिज्ञान इन्द्रियनिमित्त मतिज्ञान में करना चाहिए क्योंकि सविकल्प इन्द्रियप्रत्यक्ष में इन्द्रियव्यापार प्रधान है जब कि मनोव्यापार गौण है, अल्प है, अदृश्य है। मतिज्ञान के प्रकार स्मृति और तर्क दोनों को मनोनिमित्त मानने चाहिए। प्रत्यभिज्ञा और अनुमान के बारे में, जो कि दोनों इन्द्रिय और मन दोनों निमित्तों से जन्य हैं तथापि उनको मनोनिमित्त ही मानने चाहिए क्योंकि उनकी उत्पत्ति में मनोव्यापार प्रधान है जब कि इन्द्रियव्यापार गौण है। तत्त्वार्थसूत्र की अपनी टीका में सिद्धसेनगणि प्रस्तुत सूत्र को समझाते है और इस सूत्र के आधार पर मतिज्ञान के तीन भेद करते हैं-इन्द्रियनिमित्त, मनोनिमित्त और इन्द्रियमनउभयनिमित्त । वे कहते हैं कि ऐसा मतिज्ञान है जिसका निमित्तकारण मात्र इन्द्रिय है। जिन जीवों को मन नहीं हैं उन जीवों के विषय में अर्थात् एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के विषय में तो मात्र इन्द्रियनिमित्त मतिज्ञान ही होता है।10 इसके आधार पर क्या हमें यह समझना चाहिए कि जो मनयुक्त (संज्ञी पंचेन्द्रिय) जीव हैं, उनको मात्र इन्द्रियनिमित्त मतिज्ञान संभवित ही नहीं है, अर्थात् शुद्ध निर्विकल्प इन्द्रियप्रत्यक्ष का होना असम्भव है ? वे स्मृति को मात्र मनोनिमित्त मतिज्ञान मानते हैं । वे सविकल्पक इन्द्रियप्रत्यक्ष को उभयनिमित्त मानते हैं। 2 इस से सूचित होता है कि इस से पूर्व निर्विकल्प इन्द्रियप्रत्यक्ष की भूमिका रूप मतिज्ञान मात्र इन्द्रियनिमित्त होना चाहिए। उन्होंने प्रत्यभिज्ञा, अनुमान और चिन्ता (तर्क) के निमित्तकारण के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है, परन्तु हम कह सकते हैं कि प्रथम दो उभयनिमित्त हैं जब कि चिन्ता मात्र मनोनिमित्त है। प्रत्यभिज्ञा का विषय अतीत और वर्तमान होने से उसे उभयनिमित्त मान सकते हैं। अनुमान लिंगदर्शन और व्याप्तिस्मृति ये उभय निमित्त जन्य होने से, उसे उभयनिमित्तक मान सकते हैं । चिन्ता या तर्क तो मनोनिमित्त है ही। . यहाँ एक वस्तु ध्यान में रखना चाहिए कि मनन एक प्रक्रिया है, चिन्तनप्रवाह है, जिसमें इन्द्रियप्रत्यक्षादि का योगदान है, तथापि उनका स्वतन्त्र अस्तित्व प्रवाह में दिखाई नहीं देता, वे सब मिलकर एक अखण्ड प्रवाह बनता है, उनके अस्तित्व का उसमें निगलन होता है, अतः यहाँ उनके अपने स्वतन्त्र निमित्तों की चर्चा अनुचित हैनिरर्थक है। वास्तव में मनन के, चिन्तन के - एक अखण्ड चिन्तनप्रवाह के निमित्तकारण की चर्चा करना ही उपयुक्त है, सार्थक है। इस प्रकार सोचने से मनन का निमित्तकारण मात्र मन ही है ऐसा कहना चाहिए । इस अर्थ में मति मात्र मनोनिमित्त है। मतिज्ञान के अवग्रहादि भेद उमास्वाति मानते हैं कि अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार मतिज्ञान के भेद हैं, मतिज्ञान की क्रमिक भूमिकाएँ हैं । अवग्रहेहावायधारणाः । (१-१५) । सभी जैन ग्रन्थ इन चार को इन्द्रियप्रत्यक्ष को ही लक्ष में रखकर समझाते हैं। वस्तु कौन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82