Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr
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जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान ये जीव के प्रकार हैं। उसी प्रकार ही मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ये मति के प्रकार हैं। मतिज्ञान के प्रकारों में जो मतिज्ञान गिनाया गया है उसका संकुचित अर्थ है और वह है इन्द्रियप्रत्यक्ष । इस प्रकार ‘मति' शब्द दो अर्थ में प्रयुक्त है। उसका विस्तृत अर्थ है-ऐसा ज्ञान जिसके प्रकार हैं इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध । उसका संकुचित अर्थ है इन्द्रियप्रत्यक्ष । विस्तृत अर्थवाले मति को 'मति-अ' कहेंगे और संकुचित अर्थवाले मति को 'मति-ब' कहेंगे। यदि प्रस्तुत सूत्र (१-१३) में आये हुए ‘मति' शब्द को मति-अ के अर्थ में लिया जाय तो वह शब्द स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध का सामान्य नाम बन जायगा और परिणामतः इन्द्रियप्रत्यक्ष छूट जायगा और मति-अ में उसका समावेश नहीं होगा। तत्त्वार्थटीकाकार सिद्धसेनगणि कहते हैं कि मति का विषय वर्तमान है,' स्मृति का अतीत है, इत्यादि। यह वस्तु इस हकीकत का समर्थन करती है कि प्रस्तुत सूत्र (११३) में ‘मति' शब्द का अर्थ इन्द्रियप्रत्यक्ष है। संज्ञा प्रत्यभिज्ञा है। वह अतीत और वर्तमान उभय विषयक है।' चिन्ता भविष्यविषयक है। वह भविष्य के विषय की विचारणा है। कतिपय चिन्तक चिन्ता को प्रमाणशास्त्रस्वीकृत तर्क समझते हैं। यह तर्क अनुमान का कारण है । अभिनिबोध भी मति-अ का एक प्रकार ही है। वह इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और चिन्ता का सामान्य नाम नहीं है, जो कि जैन ग्रन्थों में उसे सामान्य नाम के रूप में समझाया जाता है और इसी अर्थ में उसका प्रयोग किया जाता है । अतः पण्डित सुखलालजी अपने विवेचन में लिखते हैं : "अभिनिबोध शब्द सामान्य है । वह मति, स्मृति, संज्ञा और चिन्ता इन सब ज्ञानों के लिए प्रयुकत होता है। परन्तु महेन्द्रकुमार जैन जैसे कतिपय आधुनिक विद्वानोंने 'अभिनिबोध' का अर्थ अनुमान किया है, जो उचित प्रतीत होता है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी प्रमाणमीमांसा स्वोपज्ञवृत्ति में जो कहा है उस पर से अभिनिबोध का अर्थ अनुमान स्पष्टतः सूचित होता है। यहाँ उन्हों ने कहा है : (इन्द्रियप्रत्यक्ष की अन्तिम कोटि) धारणा प्रमाण है और स्मृति फल है, पश्चात् स्मृति प्रमाण है और प्रत्यभिज्ञा (संज्ञा) फल है, पश्चात् प्रत्यभिज्ञा प्रमाण है और ऊह (चिन्ता) फल है, पश्चात् ऊह प्रमाण है और अनुमान फल है। इस प्रकार इन्द्रियप्रत्यक्ष से अनुमान तक पूर्वपूर्व की कड़ी का प्रमाणभाव और उत्तरोत्तर कड़ी का फलभाव बताया गया है। वे कड़ियाँ हैंइन्द्रियप्रत्यक्ष, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अनुमान । यह निश्चित रूप से सूचित करता है कि, ‘अभिनिबोध' शब्द के स्थान पर अनुमान' शब्द प्रयुक्त है और दोनों शब्द एक ही अर्थ के वाचक है।
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