Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान व्यास आदि सभी 'प्रसाद' का अर्थ चित्तशुद्धि करते हैं । प्रस्तुत योगसूत्र है : निर्विचारवैशारद्ये अध्यात्मप्रसादः । (१.४७) । स्वयं पतंजलि कहते हैं कि निर्विचार समापत्ति में विचार का निरोध होने से जो वैशारद्य या स्वच्छता चित्त प्राप्त करता है वह अध्यात्मप्रसाद है। व्यास अपने भाष्य में लिखते हैं “क्षोभ और मोह के जनक क्रमशः रजस् और तमस् रूप मलों के आवरण से मुक्त होने से चित्तप्रवाह यहाँ पूर्णतः स्वच्छ बन जाता है, यह स्वच्छता या शुद्धि ही प्रसाद है। जब योगी निर्विचार समापत्ति में यह स्वच्छता या प्रसाद प्राप्त करता है तब उसे अध्यात्मप्रसाद का लाभ हुआ कहा जाता है। स्वामी हरिहरानंद आरण्य इस सूत्र पर अपनी हिन्दी टीका में लिखते हैं : 'बुद्धि (चित्त)ही प्रधानतया आध्यात्मिक भाव है, उसका प्रसाद या नैर्मल्य।" अतः स्पष्ट है कि व्यास की श्रद्धा की व्याख्या में जो 'प्रसाद' शब्द है, उसका अर्थ विशुद्धि करना चाहिए । यहाँ ध्यान में रखना चाहिए कि अध्यात्मप्रसाद की बौद्ध विभावना और पातंजल विभावना अत्यन्त समान है। 21. पहितत्तो समानो कायेन चेव परमसच्वं सच्चिकरोति, पञ्जाय च तं अतिविज्झ पस्सति। मज्झिमनिकाय, २.१७३ 22. Jaina Philosophy and Religion, Nyayavijayaji, Tra. Nagin J. Shah, Motilal Banarsidass, Delhi, 1998, p. 74 4 23. प्रसङ्ख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेधर्ममेघः समाधिः । ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः । तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्यात् ज्ञेयमल्पम् । योगसूत्र, ४.२९-३१ तद् धर्ममेघाख्यं ध्यानं परमं प्रसङ्ख्यानं विवेकख्यातेरेव पराकाष्ठेति योगिनो वदन्ति । योगवार्तिक, १.२ तुलनीय-धर्ममेघसमाधि एवं बौद्ध धर्ममेघा-भूमि। 24. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । तत्त्वार्थसूत्र, १.२ और ४ 25. तनिसर्गादधिगमाद् वा । वही, १.३ उभयत्र सम्यग्दर्शने अन्तरङ्गो हेतुस्तुल्यो दर्शनमोहस्योपशमः क्षयः क्षयोपशमो वा। तस्मिन् सति यद् बाह्योपदेशाद् ऋते पादुर्भवति तनैसर्गिकम् । यत् परोपदेशपूर्वक जीवाद्यधिगमनिमित्तं तदुत्तरम् । सर्वार्थसिद्धि, १.३ - 26. निसर्गजे सम्यग्दर्शनेऽर्थाधिगमः स्याद् वा न वा। यद्यस्ति, तदपि अधिगमजमेव नार्थान्तरम् । अथ नास्ति, कथमनवबुद्धतत्त्वस्य अर्थश्रद्धानमिति । १.३ 27. श्रवण के पूर्व की श्रद्धा का उल्लेख बृहदारण्यक के प्रसिद्ध वाक्य आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः' इत्यादि में है, जब कि श्रवण के पश्चात् की किन्तु मनन के पूर्वकी श्रद्धा का उल्लेख छान्दोग्य के उन दो त्रिकों में हैं जिनका हमने निर्देश किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82