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जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान होने से आत्मा के स्वाभाविक गुण ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य पूर्णतः प्रकट होते हैं। उनका आनन्त्य प्रकट होता है। मोक्ष में आत्मा सुख-दुःख से पर हो जाती है। इसे ही परमानन्द की अवस्था मानी गयी है। कतिपय जैन चिन्तकों ने कहा है कि ज्ञान की निराबाधता ही अनन्त सुख है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो पूर्णता ही अनन्तसुख है। अल्पता में, अपूर्णता में सुख नहीं है, पूर्णता में ही सुख है। भूमा वै सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति।
टिप्पण
1. "In ancient times the epithet Jina was applied by various groups of
Śramanas to their respective teachers. Mendicant followers of what eventually became known as Jaina tradition were originally known as Niyantha... It was only after sranana sects using the term Jina (e.g. the Ajivikas) either died out or simply abandoned this term in favour of another (as in the case of Buddhists) that the derived term Jaina (Jina-disciple) cane to refer exclusively to the Niganthas. This seems to have occurred by round the ninth century..." The Jaina Path of Purification, Padmanabh S. Jaini, Motilal Banarsidass, Delhi,
1979, p.2, fn.3 2. India and Europe. Wilhelm Halbfass, Motilal Banarsidass, Delhi,
1990. pp. 12-13. 3. १०.१३६. २-३. 4. न्यायमञ्जरीग्रन्थिभङ्ग, संपा. नगीन जी. शाह, ला. द. भा. सं. विद्यामन्दिर, अहमदाबाद। 5. ५.३.२०. 6. पनवणासुत्त, सिद्धपद. 7. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थसूत्र, १.१. 8. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । वही, १.२.. 9. मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम् । वही, १.९ 10. पातंजल योगसूत्र (१.२०) के अपने भाष्य में व्यास द्वारा श्रद्धा की जो व्याख्या दी गई है
वह अक्षरशः बौद्ध व्याख्या से मिलती है । यह व्याख्या है-श्रद्धा चेतसः सम्प्रसादः । 11. तुलनीय- तत्त्वपक्षपातो हि धियां (=चित्तस्य) स्वभावः । योगवार्तिक, १.८. 12. जैनों की आभिग्रहिक मिथ्यात्व की मान्यता से तुलनीय । दे० Jaina Philosophy and ___Religion. Nyayavijayji. Tr. Nagin ]. Shah. Motilal Banarsidass.
Delhi, 1998. p. 205
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