Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 27
________________ जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान ३. आस्रव: सूक्ष्म पौद्गलिक कर्मरजों का आत्मा की ओर आना ही आम्रव है । आम्रव का कारण है मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति, जिन्हें जैन परिभाषा में योग कहते हैं । अतः इस प्रवृत्ति को भी आम्रव कहा जाता है। 53 18 ४. बन्ध : आत्मा के प्रति आकर्षित कर्मरजों का आत्मा के साथ नीरक्षीर सम्बन्ध होने का नाम है बन्ध | 4 उमास्वाति बन्ध के कारणों में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ( = प्रवृत्ति) मानते हैं । 55 परन्तु विशेषतः उक्त पाँचों में से कषाय बन्धका प्रमुख कारण है। 56 कषाय अर्थात् रागद्वेष । क्रोध, मान, माया और लोभ ये तो रागद्वेष का ही विस्तार हैं । आत्मा से बद्ध कर्म आत्मा की अमुक शक्ति को आवरित करते हैं (प्रकृतिबन्ध), उस शक्ति को अमुक समय तक आवरित करते हैं ( स्थितिबन्ध), विभिन्न तीव्रतावाले फल प्रदान करते हैं ( रसबन्ध, अनुभावबन्ध) और अमुक जथ्थे में आत्मा से बद्ध होते हैं ( प्रदेशबन्ध ) 157 किन्तु यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि वे आत्मा की कौनसी शक्ति (प्रकृति) को आवरित करेंगे, कितने समय तक आवरित करेंगे, कितनी तीव्रतावाले फल प्रदान करेंगे और कितने जथ्थे में बद्ध होंगे, उनके नियामक कारण क्या हैं ? जैन मतानुसार कर्मों को आत्मा की ओर लाने में कारणभूत प्रवृत्ति है और उस प्रवृत्ति के प्रकार ही आत्मा की कौनसी शक्ति को वे कर्म आवरित करेंगे, यह निश्चित करते हैं । यदि प्रवृत्ति ज्ञान के साधनों को नष्ट करनेवाली, ज्ञानी का अनादर करनेवाली होंगी तो वैसी प्रवृत्ति से लगनेवाले कर्म आत्मा की ज्ञानशक्ति को आवरित करेंगे । परिणामतः ऐसे कर्म ज्ञानावरणीय कहलायेगें । उस प्रवृत्ति का प्रमाण उन कर्मों के जथ्थे का प्रमाण निश्चित करता है। 58 कर्म कितने समय तक आत्मशक्ति को आवरित करेंगे इसका आधार तथा फल की तीव्रता - मन्दता का आधार प्रवृत्ति के समय की कषाय की तीव्रता - मन्दता पर हैं । 59 जितने अधिक तीव्र पूर्वक की गई प्रवृत्ति उतने ही अधिक समय तक उस प्रवृत्ति से लगनेवाले कर्म आत्मा की शक्ति को आवरित करेंगे और उतने ही अधिक तीव्र फल प्रदान करेंगे । इस प्रकार जैन कषाय के त्याग पर विशेष बल देते हैं, प्रवृत्ति के त्याग पर उतना नहीं । जैनोंने सांपरायिक और इर्यापथिक कर्मबन्ध स्वीकार किए हैं और बताया है कि कषाय सहित प्रवृत्ति करनेवाले को सांपरायिक कर्मबन्ध होता है और कषाय रहित प्रवृत्ति करनेवाले को इर्यापथिक कर्मबन्ध होता है। सांपरायिक कर्मबन्ध को समझाने के लिए वे गीले चमडे पर गिरि हुई धूलिरज के चिपकने का दृष्टान्त देते हैं और इर्यापथिक कर्मबन्ध को समझाने के लिए सूखी दिवार पर फेंके गये काष्ठ के गोले का उदाहरण देते हैं । जैन कहना चाहते हैं कि मनवचनकाया की प्रवृत्ति होने पर भी यदि कषाय न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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