Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 30
________________ ___21 जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) की विभावना 13. सद्धाजातो उपसंकमन्तो पयिरुपासति...। मज्झिमनिकाय, २.१७३ 14. वही, चंकिसुत्त। 15. ...पयिरुपासन्तो सोतं ओदहति, ओहितसोतो धमं सुणाति...। मज्झिमनिकाय, २.१७३ 16. सुत्वा धम्मं धारेति, धारितानं धम्मानं अत्थं उपपरिक्खति...। वही. 17. आकारवती सद्धा...दळ्हा असंहारिया...। मज्झिमनिकाय, १.३२० 18. अभिधर्मकोशभाष्य, ४.७५ 19. अत्थं उपपरिक्खतो धम्मा निज्झानं खमन्ति, धम्मनिज्झाणखन्तिया अति छन्दो जायति, छन्दजातो उस्सहति, उस्सहित्वा तुलेति, तुलयित्वा पदहति...। मज्झिमनिकाय, २.१७३ 20. वितर्कविचारक्षोभविरहात्...अध्यात्मप्रसादः ।...तस्मात् तर्हि श्रद्धा प्रसादः । तस्य हि द्वितीयध्यानलाभात् समाहितभूमिनिःसरणे सम्प्रत्यय उत्पद्यते । सोऽत्र अध्यात्मप्रसादः । अभिधर्मकोशभाष्य, ८.७ अत्यन्त उल्लेखनीय बात यह है कि कुछ महत्त्वपूर्ण बौद्ध पारिभाषिक शब्द पातंजल योगसूत्र व योगभाष्य में प्राप्त होते हैं। उनमें एक है 'अध्यात्मप्रसाद' । श्रद्धा की व्यास द्वारा प्रस्तुत व्याख्या में 'प्रसाद' शब्द को चित्तशुद्धि के अर्थ में अर्थात् श्रवणपूर्व की चित्त की रागशैथिल्य या रागराहित्य की स्थिति के अर्थ में उन्होंने या उनके टीकाकारों ने लिया नहीं है । उसे समझाते हुए वाचस्पति अपनी तत्त्ववैशारदी में लिखते हैं : स च आगमानुमानाचार्योपदेशसमधिगततत्त्वविषयो भवति, स हि चेतसः सम्प्रसादोऽभिरुचिरतीच्छा श्रद्धा। उनका तात्पर्य यह है कि आगम, अनुमान वा आचार्य के उपदेश द्वारा जिस तत्त्व को परोक्षतः जाना, उसका साक्षात्कार करने की तीव्र इच्छा ही संप्रसाद है और यह संप्रसाद ही श्रद्धा है। इस प्रकार वाचस्पति की व्याख्या मात्र श्रवण पश्चात् होनेवाली श्रद्धा को ही लक्ष में लेती है, श्रवणपूर्व की श्रद्धा को लक्ष में नहीं लेती, और श्रद्धा का जो वास्तविक अर्थ चित्तशुद्धि है, उसका किंचित् भी निर्देश नहीं करती । विज्ञानभिक्षु व्यासभाष्य पर अपने वार्तिक में इस प्रकार विवरण करते हैं : संप्रसादः प्रीतिः योगो मे भूयादित्यभिलाषः । उस का तात्पर्यार्थ यह है - गुरूपदेश से योगमार्ग जान कर जो योगमार्ग की ओर बढ़ा है, उसकी योग में प्रीति एवं 'मेरा योग सिद्ध हो' ऐसी अभिलाषा संप्रसाद है, और यह संप्रसाद श्रद्धा है । प्राध्यापक एस. एन. दासगुप्ता के समक्ष विज्ञानभिक्षु के ये शब्द थे, जब उन्हों ने अपने Yoga Philosophy ग्रंथ (पृ. ३३१) में लिखा : "Sraddha...includes a sweet hope which looks cheerfully on the practice and brings a firm belief in the success of the attempt." विज्ञानभिक्षु भी श्रद्धा से मात्र श्रवण के पश्चात की श्रद्धा ही समझते हैं और प्रसाद' का अर्थ चित्तशुद्धि नहीं करते । परन्तु 'अध्यात्मप्रसाद' शब्द के अर्थघटन के समय पतंजलि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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