Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 32
________________ जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) की विभावना 23 28. भगवद्गीता ( ४.३९) का प्रसिद्ध वाक्य है : श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् । यहाँ श्रवण के पूर्व की श्रद्धा का स्पष्ट उल्लेख है। 'ज्ञान' शब्द का अर्थ यहाँ आचार्योपदेशजन्य ज्ञान है । 29. षट्खंडागम - धवला टीका, संपा० हीरालाल जैन, अमरावती, १९३९-४२, पृ. १५१ 30. द्रष्टृ भावात्... ॥ सांख्यकारिका, १७ 31. चित्तस्य धर्मा दर्शनवर्जिताः ॥ योगभाष्य, ३.१५ चित्तं प्रख्याप्रवृत्तिस्थितिशीलत्वात् ... ! योगभाष्य, १.२. प्रख्या = ज्ञानम् । चित्त को ज्ञान है और पुरुष को दर्शन है, इस साङ्ख्य मत का खण्डन जयन्त भट्ट ने इस प्रकार किया है। “यो हि जानाति ... न तस्य.... . अर्थदर्शनम्... ... यस्य चार्थदर्शनं न स जानाति ।" न्यायमञ्जरी, काशी संस्कृत सिरिझ, पृ. ४ 32. चित्तं चेतणा बुद्धिः तं जीवतत्त्वमेव । अगस्त्यसिंहचूर्णि, दसकालियसुत्त । तदुपरान्त, प्राचीन जैन साहित्य में प्रयुक्त 'सचित्त', 'अचित्त', 'पुढईचित्त' आदि शब्द विचारणीय हैं। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध मे चित्त, जीव और आत्मा ये पर्याय शब्द हैं, अर्थात् एक ही चेतन तत्त्व के लिए वे प्रयुक्त हैं । 33. नाणं च दंसणं चेव... एवं जीवस्स लक्खणं ॥ उत्तराध्ययनसूत्र, २८.११ 34. प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् । तत्त्वार्थसूत्र, ५. १६ 35. घटप्रासादप्रदीपकल्पं संकोचविकासि चित्तं शरीरपरिमाणाकारमात्रमित्यपरे प्रतिपन्नाः । योगभाष्य, ४.१० एवमपरे साइया आहुरित्यर्थः । योगवार्तिक, ४.१० दे० भारतीय तत्त्वविद्या, पण्डित सुखलालजी, पृ. ५४ 36. षड् जीणवर्णाः परमं प्रमाणं कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम् । रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु हारिद्रवर्णं सुसुखं च शुक्लम् ॥ परंतु शुक्लं विमलं विशोकं... ॥ 37. "The theory of Karmic colours is not peculiar to Jainas, but seems to have been part of the general pre-Aryan inheritance that was preserved in Magadha." Philosophies of India, The Bollingen Series, XXVI (1953), p. 251 38. दे० विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १६३७-३८ 39. स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः । तत्त्वार्थसूत्र, ५.२३ 40. Pravacanasāra Sri Rayachanda Jaina Sastramala, No. 1, Ed. A. N. Upadhye, Introduction, p. LXXXI For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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