Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 28
________________ जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) की विभावना 19 ___ हो तो उपार्जित कर्मों में स्थिति एवं रस का बन्ध नहीं होता। कर्म लगने के साथ ही अलग हो जाते हैं। स्थिति और रस के बन्ध का कारण कषाय है। अतः कषाय ही संसार की वास्तविक जड़ है।60 इस प्रकार वास्तव में तो फल की आकांक्षावाली, रागद्वेषप्रेरित प्रवृत्ति ही बन्ध का कारण है; निष्काम रागद्वेष रहित प्रवृत्ति बन्ध का कारण नहीं है, ऐसा फलित होता है। इसलिए ही कहा गया है : कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव। ५. संवर : कर्मरजों को आत्मा की ओर आने से रोकना संवर है।61 संवर का उपाय है प्रवृत्ति का संयम, सर्व दुष्प्रवृत्ति में से अपने को दूर रखना। उमास्वाति ने संवर के उपाय के रूप में व्रत, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तप को बताये हैं।62 हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह से विरति यह व्रत है। मनवचनकाया की प्रवृत्ति का सम्यक् निग्रह यह गुप्ति है। विवेकशील प्रवृत्ति समिति है । क्षमा, मृदुता, ऋजुता, शौच, संयम, सत्य, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्यरूप दशविध धर्म है। शान्त भाव से परीषहों को सहना परीषहजय है। समभाव आदि चारित्र है। वस्तुस्थिति का कल्याणपोषक चिन्तन अनुप्रेक्षा है। ६. निर्जरा : बद्ध कर्मों में से कतिपय कर्मों का आत्मा से अलग होना निर्जरा है। यह निर्जरा दो प्रकार से होती है। एक निर्जरा में उच्च आध्यात्मिक आशय से किए गये तप से बद्ध कर्मरज आत्मा से अलग हो जाती है। द्वितीय निर्जरा में कर्म अपने परिपाक के समय फलभोग के बाद आत्मा से अलग हो जाते हैं। प्रथम सकाम निर्जरा कहलाती है जब कि द्वितीय अकाम निर्जरा कहलाती है। अकाम निर्जरा का चक्र तो चलता ही रहता है। उस से जीव को कोई लाभ नहीं है। सकाम निर्जरा ही आध्यात्मिक लाभ कराती है। यह सकाम निर्जरा तप से साध्य है।64 तप दो प्रकार के हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप के छह भेद हैं-अनशन (उपवास), ऊणोदरी, वृत्तिसंक्षेप (विविध वस्तुओं की लालच या तृष्णा कम करना), रसत्याग, विवक्तशय्यासनसंलीनता (विघ्नरहित एकान्त स्थान में सोनाबैठना-रहना आदि) और कायक्लेश (शीत में, धूप में रह कर या विविध आसन आदि से शरीर को कसना)। आभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य (सेवा), स्वाध्याय, व्युत्सर्ग (अहंत्व-ममत्व त्याग) और ध्यान (धर्मध्यान और शुक्लध्यान)66। ७. मोक्ष : बन्ध हेतुओं के अभाव से, संवर से और निर्जरा से सर्व कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना (आत्मा से अलग होना) मोक्ष है।67 सर्व कर्म के आवरण दूर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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