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जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) की विभावना प्रसाद प्राप्त करता है । उसे अध्यात्मप्रसाद कहा जाता है । अर्थात् यहाँ अध्यात्मप्रसादरूप श्रद्धा होती है। चित्त की इस शुद्धि के कारण धर्म या सिद्धान्त चित्तमें पूर्णतः प्रतिबिम्बित होता है। परिणामतः साक्षात्कार होता है, प्रज्ञा का उदय होता है, सत्य का वेध होता है।
श्रवण, मनन और निदिध्यासन की अवस्थाओंमें से गुजरती हुई श्रद्धा अधिकाधिक पुष्ट होती जाती है। ज्यों ज्यों चित्त इन भूमिकाओं से गुजरता है त्यों त्यों रागमल अधिकाधिक क्षीण होता जाता है और परिणामतः चित्त की विशुद्धि (प्रसाद) अधिकाधिक होती जाती है। उत्तरोत्तर विशुद्धि की वृद्धि के साथ चित्तमें सत्य अधिकाधिक विशद रूप में गृहीत होता है, प्रतिबिम्बित होता है। इस प्रकार श्रद्धा के साथ ज्ञान का भी विकास होता है और अपनी पूर्णता प्रज्ञा में पाता है। निर्वितर्कनिर्विचारात्मक गम्भीर ध्यान के परिणामस्वरूप राग का सम्पूर्ण नाश होने से अर्थात् उत्कृष्ट चित्तविशुद्धि (चित्तप्रसाद) की प्राप्ति होने से प्रज्ञा का उदय होता है। जैनदर्शन में भी द्वितीय निर्विचार शुक्लध्यान के परिणामस्वरूप निःशेष रागनाश होने से विशुद्ध ज्ञान केवलज्ञान या अनंतज्ञान उदित होता है ।22 और पातंजल योग में भी धर्ममेघसमाधि के फलस्वरूप राग का पूर्णतः क्षय होने से प्रसंख्यान (प्रकृष्ट ज्ञान) या अनंतज्ञान प्रकट होता है। श्रद्धा की बौद्ध विभावना समझ लेने के पश्चात् अब हम श्रद्धा की जैन विभावना का निरूपण करेंगे।
जैनदृष्टि सम्मत श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) ___जैसे हमने देखा है, जैन चिंतक 'दर्शन' शब्द का प्रयोग श्रद्धा के अर्थ में करते हैं। जैनमतानुसार जीव, अजीव, आसव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व हैं। उन तत्त्वों में श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है।24 यहाँ श्रद्धा का अर्थ रुचि या अभिप्रीति किया गया है। अतः समग्र अर्थ होगा जीव आदि तत्त्व ही सच्चे हैं ऐसा भाव होना ही श्रद्धा है। यह एक ही श्रद्धा है। उसकी विभिन्न भूमिकाएँ नहीं है। इस श्रद्धा का प्रमुख कारण आन्तरिक शुद्धि है, रागद्वेषग्रन्थिभेद है, दर्शनमोहनीय कर्म का उपशमक्षय-क्षयोपशम है, किन्तु उसका निमित्तकारण गुरूपदेश है। इस श्रद्धा की उत्पत्ति में निमित्तकारण (गुरूपदेश) को अनिवार्य नहीं माना गया। फलतः कतिपय जीवों में निमित्तकारण के बिना ही इस श्रद्धा का जन्म होता है। अतः उनकी श्रद्धा नैसर्गिक श्रद्धा कहलाती है। कतिपय जीवों में निमित्तकारण द्वारा इस श्रद्धा का जन्म होता है। अतः उनकी श्रद्धा अधिगमज श्रद्धा कहलाती है। इस प्रकार एक ही श्रद्धा निर्निमित्तक या
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