Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 23
________________ 14 1 जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन मतिज्ञान केवलज्ञान प्रायः सम्पूर्ण लक्षण दिया है। वे बताते हैं कि आत्मा चैतन्यस्वरूप है, परिणामी है, कर्त्ता है, साक्षात् भोक्ता है, प्रतिक्षेत्र भिन्न है, देहपरिमाण है और पौद्गलिक अदृष्टवान् है । आत्मा की परिणामिता आत्मा प्रत्येक क्षण में परिवर्तन प्राप्त करती है । तथापि वह नित्य है । उमास्वाति ने नित्य का लक्षण इस प्रकार दिया है - तद्भावाव्ययं नित्यम् | अपने मूलभूत स्वभाव या जाति में से अविच्युति यही नित्यता है । अपनी मूलभूत जाति को छोडे बिना भिन्न भिन्न परिणाम प्राप्त करनेवाली वस्तु को नित्य कहा जाता है। इसमें परिवर्तन की मर्यादा है । द्रव्य अपनी मूलभूत जाति में सम्भवित सभी परिवर्तन प्राप्त कर सकता है, परन्तु इतनी सीमा तक परिवर्तन प्राप्त नहीं कर सकता कि वह अपनी मूलभूत जाति का त्याग करके दूसरी ही मूलभूत जाति का बन जाय । आत्मा कभी पुद्गल (मेटर) में परिवर्तित नहीं हो सकती या पुद्गल आत्मा में परिवर्तित नहीं हो सकता। ऐसा होने से आत्मव्यक्तियों में एक की भी वृद्धि या कमी सम्भव नहीं है। अर्थात् आत्मव्यक्तियों की संख्या नियत है और वह अनन्त है, एवं प्रत्येक आत्मव्यक्ति अनादि - अनन्त है, अर्थात् अनुत्पन्न और अविनाशी है । बौद्ध के अनुसार भी चित्तसन्तान कभी अचित्तसन्तान नहीं बन जाता । चित्तसन्तान, चित्तसन्तान रहता है । चित्तसन्तानों की संख्या भी नियत ही है । अतः चित्तसन्तान सन्तान रूप अनुत्पन्न और अविनाशी माना जाता है । में - आत्मा का कर्तृत्व - जैनों ने आत्मा को परिणामी माना है, अतः वह परिणामों की कर्ता है। उपरांत, जैनों ने आत्मा को मन, वाणी और शरीर से भिन्नाभिन्न माना है | अतः मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति की वह कर्त्ता है । तदुपरान्त, मन, वाणी और शरीर को उनकी प्रवृत्ति में प्रेरनेवाली आत्मा होने से भी वह सर्व मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों की कर्त्ता ठहरती है। जैन मतानुसार प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप पौगलिक कर्मरज आत्मा की ओर आकर्षित होती हैं और आत्मा के साथ बद्ध होती हैं, अतः इस अर्थ में आत्मा पौगलिक कर्मों की भी कर्त्ता मानी जाती है । आत्मा का भोक्तृत्व - जैनदर्शन अनुसार आत्मा भोक्ता भी है। जैनों द्वारा आत्मा को परिणामी मानने से, उस में मुख्यार्थ में भोक्तृत्व घटित हो सकता है। कर्मसिद्धान्त की संगति हेतु कर्मों का जो कर्ता हो, वही कर्मों के फलों का भोक्ता होना चाहिए । वह शरीर, मन, इन्द्रियों द्वारा सुख-दु:ख भुगतता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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