Book Title: Jain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Author(s): Naginashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 13
________________ का अवयव है, कर्म स्थूल शरीर का । व्यक्ति-व्यक्ति में आकृति - प्रकृति की भिन्नता, आचार-व्यवहार की भिन्नता, जड़-जगत की भिन्नता क्यों है ? इनकी खोज में ही कर्म-: - शास्त्र की दिशा अनावृत हुई है। मनोविज्ञान में जैसे तीन वर्ग हैं- सामान्य, असामान्य और विशिष्ट । ये भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व के आधार पर तीन विभाग हैं। क्रेचनर ने शारीरिक संरचना और चित्त-प्रकृति को सामने रखकर व्यक्तियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया - सुडौल काय (Athletic), लंबकाय ( Aesthemic), गोलकाय (Pynic), डायस्प्लास्टिक (Dysplastic)। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक शैल्डन के अध्ययन के अनुसार शरीरों का वर्गीकरण तीन प्रकार का है - गोलाकार (Endomorphic), आयताकार (Mesomorphic), लम्बाकार (Ecomorphic) | जैन दर्शनानुसार प्राणी की शरीर-संरचना, रूप-रंग, आकार-प्रकार आदि सभी नाम कर्म के कारण बनते हैं। इनके लिये दो शब्द प्रचलित हैंसंहनन, संस्थान । कर्म सिद्धांत के आधार पर व्यक्तित्व के और भी अनेक प्रकारों का विश्लेषण किया जा सकता है। मानस शास्त्र के अध्ययन के लिये कर्म - शास्त्र को पढ़ना अनिवार्य है। कर्म की आवारक, विकारक और प्रतिरोधात्मक - तीन शक्तियां मुख्य हैं। कर्मवाद सिद्धांत ही नहीं, जीवन का दर्शन है। उसके अभाव में न मन का विश्लेषण कर सकते हैं, न व्यक्तित्व का । कर्म-शास्त्र में जिन-जिन समस्याओं पर चिंतन किया है, उन्हीं समस्याओं का अध्ययन और शोध मनोविज्ञान का मुख्य विषय है। मनोविज्ञान के अभिमत से संवेग के उद्दीपन व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन लाते हैं। कर्मशास्त्र में चारित्र एवं व्यवहार के रूपान्तरण में मोहनीय कर्म विपाक निमित्त है । एक दृष्टि से कर्मशास्त्र और मनोविज्ञान की धारा मानो एक दिशागामी होकर प्रवाहित है। वंशानुक्रम, परिवेश और परिस्थिति भी हमारे व्यक्तित्व के संपूर्ण रूप से निर्णायक नहीं हैं । कारण, कोई भी वंशानुक्रम व्यक्ति के पूर्व चारित्र एवं कार्यों से अप्रभावित नहीं है । हमारे चैतन्य के चारों ओर कषाय के वलय के रूप में कार्मण शरीर है। यही पुनर्जन्म का हेतु है । कषाय से उसे अभिसिंचन मिलता रहता है । पुनर्जन्म की श्रृंखला बढ़ती जाती है। चौदह

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