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साधना राग की, प्रार्थना वीतराग की
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मेरे प्रिय आत्मन् ! ____जो आसक्त है उसका संसार अनन्त है। जो आसक्ति का अन्त करता है, वह अनन्त को पा लिया करता है। जो मूर्च्छित है, वह दलदल में पड़े हुए कीड़े की तरह है। जो जागृत है, वह दलदल में खिले हुए कमल के पुष्प की तरह है। जो राग-द्वेष के अनुबन्धों से घिरा हुआ है, वह दुनिया के कारागार में बन्द है। जो विराग और वीतरागता की ओर अपने कदम बढ़ा चुका है, वह अनन्त आकाश का स्वामी है।
जिसके पाँव ठहर चुके हैं, वह संसारी है। जिसका मन स्थितप्रज्ञ है, वह संन्यासी है। जिसका मन अशान्त है, वह गृहस्थ है। जो अपने मन में शान्ति और समता का स्वामी बन चुका है, वह सन्त है। संसारी वह प्राणी कहलाता है जो पाँव से तो एक जगह स्थित हो गया है पर उसका मन संसार की दसों दिशाओं में घूमता रहता है। सन्त वह है जो मन से तो स्थितप्रज्ञ हो गया है, पर उसके पाँव सारे संसार का भ्रमण करते रहते हैं।
किसी अंगुलीमाल के द्वारा भगवान को ललकारा जाता है कि तुम जहाँ पर भी हो, वहीं ठहर जाओ। भगवान के द्वारा उत्तर दिया जाता है, 'मैं तो स्थित ही हूँ। हो सके तो तुम ठहर जाओ।' अंगुलीमाल चौंक पड़ता है कि वह स्वयं को तो रुका हुआ कहता है जबकि वह तो चल रहा है। और मुझे जो ठहरा हुआ हूँ, स्थिर होने
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