Book Title: Jage So Mahavir
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 237
________________ २२८ जागे सो महावीर गयी। भगवान ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा, 'वत्स ! एक गाँव तुम्हारे अन्तरमन में भी है, उस गाँव की राहें भी कुछ ऊबड़-खाबड़ और कुछ सुन्दर हैं। जरा उस अन्तरमन के गाँव में उतर कर तो देखो, उसके सौन्दर्य, माधुर्य और महक का अनुभव तो करो। अपने अन्दर बसे उस सुन्दर राज-उद्यान को तो देखो।' ___ महावीर जानते हैं कि वह जिस मार्ग पर ले जाना चाहते हैं, वह ऊबड़खाबड़ भी है तो सुन्दर भी है। उस मार्ग पर सुन्दर उद्यान हैं तो गहरे दर्रे और खाइयाँ भी हैं। कभी मोह-माया अपने आगोश में भर लेती है तो कभी राग-द्वेष के निमित्त इतने बलवान बन जाते हैं कि महामार्ग पर कदम बढ़ाने के बावजूद व्यक्ति मुक्त नहीं हो पाता वरन् उस मार्ग पर भी वह किसी संसार का ही निर्माण करता है। वह किसी देवत्व या स्वर्गत्व को भले ही उपलब्ध कर ले, पर वह मुक्त चेतना का स्वामी नहीं बन पाता। महावीर उस मार्ग के हर पथिक के हाथ में आत्म-जागरण का दीप थमाना चाहते हैं। वे जानते हैं कि जब तक आत्म-जागरण का दीप प्रज्वलित न हुआ, तब तक व्यक्ति द्वारा की जाने वाली सब क्रियाएँ राख पर लीपा-पोती के समान होंगी। धार्मिक लोगों के द्वारा की जाने वाली प्रार्थनाएँ, प्रतिक्रमण और अन्य कोई भी धार्मिक अनुष्ठान तब ही सार्थक हो सकते हैं, जबकि उनके हाथ में आत्म-जागरण, आत्म-सजगता, अप्रमत्तता का दीप हो। ___ जीवन में बस, सजगता/जागरूकता चाहिए। अगर मुझसे कोई पूछे कि महावीर के धर्म का सार एक शब्द में क्या होगा? तो मैं कहूँगा कि महावीर के समस्त शास्त्रों का, समग्र जीवन-दृष्टि का सार और रहस्य मात्र एक शब्द में छुपा है और वह है सजगता-जागरूकता। ___ सजगता या अप्रमत्ततापूर्वक किया गया हर कार्य व्यक्ति के गुणस्थान के विकास में सहयोगी होता है। जन्म-जन्म हम धर्म की दहलीज तक पहुँचे, हमने श्रावक और श्रमण-धर्म भी स्वीकार किया, पर प्रगाढ़ मूर्छा और प्रमादवश हम आगे न बढ़ पाए, इसलिए बात सधन पाई। श्रमण बनना कठिन नहीं है तो सरल भी नहीं है, पर भीतर लगी मूर्छा और प्रमाद की जंजीरों को तोड़ना अवश्य ही कठिन है। गुणस्थानों में छठा गुणस्थान है प्रमत्त विरत और सातवाँ गुणस्थान है अप्रमत्त विरत। छठे गुणस्थान प्रमत्त विरत तक तो हमने सौ-सौ दफा कदम रखे होंगे, पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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