Book Title: Jage So Mahavir
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 239
________________ २३० जागे सो महावीर __जैसे कोई आदमी शराब के नशे में अपना भान खो देता है, उसे माँ और बहिन का विवेक भी नहीं रहता, ऐसे ही जिस व्यक्ति पर मूर्छा की मदहोशी छाई हुई हो वह अपना बोध, अपना ज्ञान और अपना विवेक खो बैठता है। व्यक्ति रोज-ब-रोज अपने ही लोगों से, अपने ही परिवार से धोखा और ठोकरें खाता है, पर मूर्छा उसे इन सबसे अलग नहीं होने देती। जीवन में पग-पग पर आने वाली समस्याएँ और दुःख देखकर कई दफे व्यक्ति का मन होता है कि इससे अच्छा तो आत्महत्या ही कर ली जाए। व्यक्ति को जन्म-जन्म की उस मर्जी के चलते आत्महत्या करना तो याद आ जाता है, पर उस मार्ग की याद नहीं आती जो उसे जन्म-मरण से ही मुक्त कर सके। .. भर्तृहरि जैसे मनीषी कितने होते हैं, कि उन्हें ठोकर लगी और सम्हल गये। सौदागर ने लाकर अमृतफल दिया। कहा कि यह वह फल है, जिसे जो ग्रहण कर लेगा, वह अधिक सुन्दर, स्वस्थ और युवा हो जाएगा। भर्तृहरि को यह अद्भुत फल समर्पित है। भर्तृहरि का प्रेम महारानी से अधिक होता है। भर्तृहरि वह फल महारानी को उपहार रूप देते हैं। महारानी महावत के सुडौल शरीर पर मुग्ध होती है। फल महावत तक पहुँच जाता है। महावत गणिका के नाज-नखरों पर फिदा होता है। महावत वह उपहार गणिका को दे देता है। गणिका यह सोचकर कि इस फल को पाने का असली हकदार तो राजा है, फल भर्तृहरि के पास लौट आता है। फल पाकर भर्तृहरि अचंभित हो उठता है। बीच की सारी रामकहानी जब जानने को मिलती है, तो भर्तृहरि को आत्मबोध उपलब्ध हो जाता है। ध्यान रखो, जिस पर तुम मरते हो, सम्भव है वह तुमसे विरक्त हो। ___ बस, ठोकर लगी, सम्हल गये। जो ठोकर लगने पर भी नहीं सम्हलते वे मूढ़ हैं, मूर्छित हैं, अज्ञानी हैं। ऐसे प्राणी बस क्षमा करने योग्य ही हैं। मैं होश का हिमायती हूँ। होश और बोध इनसे बढ़कर अध्यात्म के और कोई चिराग नहीं हैं। __ कहते हैं : शराब पी चुका आदमी रात को नौका विहार के लिए बैठा। रात भर पतवार चलाता रहा, पर सुबह देखा तो नौका वहीं थी जहाँ पर पहले खड़ी थी। नौका का लंगर न खोला जाए तब तो एक रात तो क्या पूरे जन्म-जन्म तक तुम पतवार चलाते रहो, पर नौका चार इंच भी आगे नहीं बढ़ पाएगी। मूर्छा के लंगर अगर न खोले गए तो व्यक्ति यों ही दलदल में फंसा और धंसा रहेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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