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जागे सो महावीर
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मूल बात है होश और सजगता की। यदि व्यक्ति में होश है, तो गृहस्थजीवन भी मुक्ति के आयाम उपलब्ध करा सकता है। यदि सजगता और होश न हुए तो सन्त बनकर भी संसार का ही निर्माण होगा। क्रोध भी करो तो होश के साथ। होश होगा तो क्रोध आएगा ही नहीं, और अगर क्रोध करना व्यक्ति की मजबूरी होगी तो वह क्रोध भी व्यक्ति के कर्म-बंधन का निमित्त न बनेगा। तीर्थंकर और बुद्ध अगर विवाह भी करते हैं तो उनके द्वारा किए जाने वाला गृहस्थ-जीवन का उपयोग भी उनकी कर्म-निर्जरा में सहायक होता है। कुंदकुंद जैसे आचार्य तो कहते हैं कि-'सम्यक्दृष्टि जीव चाहे चेतन द्रव्यों का उपयोग करे अथवा अचेतन द्रव्यों का, उसका हर कार्य उसके कर्म-बन्धन को क्षीण करता है।'
मूल्य किसी पदार्थ के त्याग और भोग का नहीं है, मूल्य और महत्त्व तो है पदार्थ के प्रति रहने वाली सजगता और होश का। भगवान कहते हैं कि एक व्यक्ति चलते हुए भी महान् धर्म का पालन कर सकता है और दूसरे व्यक्ति का चलना भी अधर्म हो सकता है। यदि व्यक्ति होश और सजगतापूर्वक चलता है तो उसका किसी भी पथ पर चलना, मन्दिर की सीढ़ियों पर चढ़ने के समान हो जाया करता है। और यदि व्यक्ति बेहोशीपूर्वक किसी मन्दिर की सीढ़ियाँ भी चढ़ेगा तो वह वहाँ भी दो-चार कीड़े-मकोड़े मार आएगा। उसका मन्दिर जाना भी अधर्म हो जाएगा। मूल्य है होश के चिरागों का, मूल्य है आत्म-जागरण के दीयों का।। ___ पहली अवस्था है सुषुप्ति। जहाँ व्यक्ति मेरेपन की गहन मूर्छा में फँसा रहता है। मेरी माँ, मेरा बाप, मेरी पत्नी, मेरा धन, मेरा शरीर ! यह जो मेरापन है, वही मूर्छा है। मैं और मेरापन ही बाँधता है। 'मेरा' का भावही शरीर को भी मैं से जोड़
देता है। प्रश्न है शरीर कब तक मेरा रहेगा। कुछ समय के अन्तराल बाद तो यह निश्चित रूप से मिट्टी में मिल जाएगा। आज सुबह ही ऐसी कुछ चर्चा चल रही थी कि अमुक तीर्थ की मूर्तियाँ शाश्वत हैं। मैंने कहा कि जब तीर्थंकर का शरीर ही शाश्वत नहीं हो सका, उनके अनुयायी ही शाश्वत न हो सके तो तीर्थंकर के नाम पर बनने वाली मूर्तियाँ शाश्वत कैसे हो सकती हैं ?
आज विज्ञान और धर्म दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि आप जिस चार फुट की जमीन पर बैठे हैं वहाँ कम से कम अब तक दस लोग दफनाए जा चुके हैं। दुनिया में ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ मृत व्यक्ति दफनाए या जलाए न जा चुके हों। ऐसा मिट्टी का कोई कण नहीं है, जो अब तक मृत व्यक्ति का संस्पर्श न कर चुका
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