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कर्म, आखिर कैसे करें ?
वह
जिसके उदय से हम सुख, दुःख, शाता - अशाता का अनुभव करते हैं, वेदनीय कर्म है। ऐसा कर्म जिसके उदय से व्यक्ति चाहकर भी संसार की उलझनों और बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता, वह घातक कर्म मोहनीय है। इसमें व्यक्ति की स्थिति किसी शराबी जैसी होती है, वह बेसुध रहता है । उसे मोह के नशे में यह भान नहीं रहता कि वह जो कर रहा है, सही है या गलत। उसे लगता है कि वह दूसरे पर उपहास कर रहा है, पर वह उपहास स्वयं पर ही करता है । मोहनीय कर्म के उदय से व्यक्ति अपने स्वरूप को भूल जाता है। अपने आपको भूल बैठना ही जीवन की सबसे बड़ी भूल है ।
आयुष्य कर्म एक हल के समान है । हल में व्यक्ति का पाँव फँस जाए तो वह रुका रहता है, उसी प्रकार आयुष्य कर्म के कारण व्यक्ति को एक शरीर में निश्चित अवधि तक रहना पड़ता है। नाम-कर्म एक चित्रकार के समान है। चित्रकार तूलिका से अलग-अलग चित्र बनाता है वैसे ही नाम-कर्म के उदय से व्यक्ति नाना प्रकार के रूप धारण करता है। कोई स्त्री, कोई पुरुष, कोई तिर्यंच और कोई नपुंसक । गौत्र-कर्म का स्वभाव एक कुम्भकार के समान है। जैसे कुम्हार एक ही मिट्टी से कोई बर्तन छोटा बनाता है तो कोई बड़ा, वैसे ही गौत्र कर्म के कारण व्यक्ति ऊँच या नीच कुल प्राप्त करता है।
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अन्तराय कर्म का स्वभाव उस खजांची या भण्डारी के समान है जो राजा के खजाने में धन होने पर भी देने में बाधक बनता है। यही वह कर्म है जो हमें चाहने पर भी अपनी साधना में आगे नहीं बढ़ने देता । वह हमारे दान, लाभ आदि में बाधक बनता है । इस कर्म के कारण ही भगवान ऋषभदेव को बारह घड़ी की अन्तराय बाँधने पर बारह माह तक भोजन नहीं मिला था ।
घाती कर्मों में सबसे अधिक खतरनाक मोहनीय कर्म है, तो अघाती कर्मों में अन्तराय सबसे अधिक बलवान है, जिसे किसी भी उपाय से नहीं काटा जा सकता । हम ज्ञानावरणीय को काट सकते हैं। हम प्रतिदिन ज्ञान का स्वाध्याय करें, ज्ञान की आशातना न करें। दर्शनावरणीय को भी काटा जा सकता है कि व्यक्ति सत्य के प्रति श्रद्धा रखे, सत्य का सम्मान करे। हर शाता- अशाता के बीच मन की समता बनाए रखकर वेदनीय को भी शिथिल किया जा सकता है। संसार में रहकर भी कमल की पंखुरियों के समान निर्लिप्त रहकर मोहनीय पर भी विजय पाई जा सकती है।
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