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जागे सो महावीर
अपराध और पाप करता हूँ, उस पाप का परिणाम जब उदय में आएगा तो तुम भी मेरा साथ दोगी ना। पत्नी बोली, 'पतिदेव ! सुख में तो सभी सहभागी हो सकते हैं, पर आपके पापों का फल तो आपको ही भोगना पड़ेगा। मैं भला साथ कैसे दे सकती हूँ।' वाल्मीकि इस तरह से घर के प्रत्येक सदस्य के पास जाकर यही प्रश्न पूछता है।
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माता, पिता, भाई, बहन और बच्चे सभी यही कहते हैं कि आपके पाप का फल तो आपको ही भोगना पड़ेगा, हम भला क्यों उन पापों के परिणाम में सहभागी बनेंगे? वाल्मीकि तब जो संत को लूटना चाहते थे, वह अपनी सारी लूट की दौलत छोड़कर संत के चरणों में आकर गिर जाते हैं और कहते हैं, 'हे महात्मन् ! मुझे बोध मिल गया है और अब मैं इस पाप और अपराधमयी जीवन को त्याग कर पुण्य-पथ का अनुगमन करना चाहता हूँ | मैंने जान लिया है कि व्यक्ति स्वयं ही स्वकृत कर्मों का भोक्ता होता है और उसका कोई सहभागी नहीं होता ।'
ar का बोध जागृत हो जाने पर एक डाकू वाल्मीकि, महर्षि वाल्मीकि बन जाता है, जिसने इतिहास की कालजयी कृति वाल्मीकि रामायण की रचना की ।
भगवान महावीर यही प्रेरणा देना चाहते हैं कि व्यक्ति बोधि और सम्यक्त्व को उपलब्ध हो। मनुष्य एक अन्धे प्रवाह में बहा जा रहा है। वह अन्धत्व या मिथ्यात्व के भँवरजाल में फँसा हुआ है । वह बहुत सोचता है कि इस जाल से निकल जाऊँ या इस प्रवाह में स्वयं को गतिमान न बनाऊँ या फिर इस प्रवाह को रोक दूँ, पर जब चित्त में क्रोध, ईर्ष्या या अन्य किसी विकार की तरंगें उठती हैं तो सभी संकल्प रेत के महल की तरह ढह जाते हैं । व्यक्ति चाहता है कि मैं क्रोध नही करूँ या अन्य कोई विकार मन में न लाऊँ पर जैसे खुजली का रोगी खुजली उठने पर खुजलाने को विवश हो जाता है, ऐसे ही जब यह अन्धा प्रवाह उठता है तो व्यक्ति स्वयं पर नियन्त्रण नहीं रख पाता और उसमें बह ही जाता है ।
मैं जीवन्त धर्म पर विश्वास करता हूँ। मेरा विश्वास उस धर्म से जुड़ा है जो महज किताबों की धरोहर नहीं बल्कि व्यक्ति के जीवन की सम्पदा है और जो व्यक्ति से जुड़ा है। मेरे पास एक चौरानवें वर्ष के वृद्ध व्यक्ति आया करते थे जो अच्छे सम्बोधि-साधक भी थे। एक दिन मैं उनसे बातचीत कर रहा था और मैंने उनसे कहा, 'दादाजी, मैं आपसे आपके जीवन से जुड़ी हुई एक बात पूछना
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