________________
१५०
जागे सो महावीर
जाता है और मुँहपत्ती मात्र प्रदर्शन भर रह जाती है। इसी सन्दर्भ में भगवान अगला सूत्र निवेदित कर रहे हैं
थोवम्मि सिक्खिदे जिणई, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो।
जो पुण चरित्त हीणो, किं तस्स सुदेव बहुएण॥ भगवान अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं कि 'चारित्रसम्पन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है और चारित्रविहीन का बहुत श्रुतज्ञान भी निष्फल है।' ___ भगवान ने चारित्र और ज्ञान से भी पहले दर्शन को महत्त्व दिया। भगवान कहते हैं कि पहले सम्यक् दर्शन हो अर्थात् भीतर की आँखें खुल जाएँ । भीतर की
आँखें खुलने पर जो इन आँखों से जाना जाए, वही सम्यक् ज्ञान है और जो विवेक-चक्षुओं से जाना जाएगा, उसका आचरण ही सम्यक् चारित्र है। जो जाना है, उसके आचरण का महत्त्व है। जब कोई पचास वर्ष का वृद्ध आता है और कहता है कि हम दीक्षा तो ले लें, पर अब इस उम्र में हम क्या सीख पाएँगे? तब मैं कहता हूँ कि तुम अपने भावों की ऋजुता, सरलता और विनम्रता से अवश्य ही चारित्र की मंजिल को प्राप्त कर लोगे और ये जो बड़े-बड़े ज्ञानी हैं, वे अपनी पंडिताई की अकड़ में यहीं बैठे रह जाएंगे। वहाँ ऋजुता का महत्त्व है। ज्ञान की अकड़ वहाँ नहीं चलती। जिसके हृदय में सरलता और ऋजुता है, वही अपनी नौका पार लगा सकता है। इसीलिए भगवान ने कहा कि 'चारित्रशून्य व्यक्ति का विपुल शास्त्राध्ययन भी व्यर्थ है।'
व्यक्ति स्वयं जिन बातों का पालन नहीं करता वह यह अपेक्षा क्यों रखता है कि दूसरे उन बातों का पालन करें। पिता, बच्चे को कहता है कि 'बेटा, गुस्सा नहीं करना चाहिए। गुस्सा तो कमजोरी की निशानी है।' थोड़ी देर बाद ही बच्चे से कोई गलती हो जाती है और वही पिता बेटे को गुस्से में आकर चाँटा जड़ देता है। उस उपदेश का उस बच्चे पर भला क्या असर होगा!
एक बार कोई बच्चा घर के बाहर खेल रहा था। तभी वहाँ एक महाशय आए और उन्होंने पूछा, 'बेटा, क्या तुम्हारे पापा अन्दर हैं? बच्चा दौड़कर घर के अन्दर गया और उसने अपने पिता को बैठे देखा। वह बोला, 'पापा, पापा! बाहर एक आदमी आया है जिसकी बड़ी बड़ी मूंछे हैं। उसने सिर पर पगड़ी लगा रखी है और उसके हाथ में छड़ी है। वह आपके लिए पूछ रहा है।' पिता ने सोचा, अच्छा यह
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org