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जागे सो महावीर यह आवश्यक नहीं कि सौ मालाएँ फेरी जाएँ। माला एक ही फेरी जाए, पर वह पूर्ण मनोयोग के साथ। कोई भी कार्य यदि मनोयोग के साथ किया जाता है तो वह अवश्य ही फलदायी होता है। ___आप प्रतिक्रमण के पाठ बोलते समय एक सूत्र बोलते हैं - ‘सिद्धाणं-बुद्धाणं।' उसमें एक पंक्ति आती है 'इक्कोवि णम्मुक्कारो जिणवर वसहस्स वद्धमाणस्स संसार सागराओ तारेइ नरंवा नारिवा।' यदि एक बार भी जिनेश्वर देव को भावपूर्वक नमस्कार किया जाता है तो वह एक नमस्कार ही व्यक्ति को संसार-सागर से पार लगा देता है।
हमने तो हजार-हजार बार नमस्कार कर लिए, पर हम तो संसार-सागर के पार नहीं पहुँचे। कारण यही है कि हमने भावपूर्वक नमस्कार ही नहीं किया। मूल्यवान है व्यक्ति की भावदशा। हम बाहर तो बोलते हैं 'तिक्खुत्तो' और अन्दर चलता है 'तू कुत्तो'। यदि बाहर और भीतर दोनों स्थितियों में समानता न हुई तो व्यक्ति जीवन में परिणाम को उपलब्ध नहीं कर पाएगा। हम भावपूर्वक प्रतिक्रमण करें, अपने पापों का संकल्पपूर्वक, स्मरणपूर्वक प्रायश्चित करें ताकि वे पाप हमसे फिर-फिर न हो सकें।
अगला आवश्यक' कर्म है 'वंदन'। पहले लोग भगवान के पास, अपने गुरु के पास या अपने किसी परमोपकारी के पास जाते तो सर्वप्रथम उनकी तीन प्रदक्षिणाएँ लगाई जाती थीं। मैं आपको यह भगवान महावीर के समय की वंदनप्रक्रिया बता रहा हूँ। आज तो लोग तीन बार माथा झुका देते हैं और हो गई उनकी परिक्रमा। तीन प्रदक्षिणा भगवान या गुरुजनों को देने के पश्चात् उनका पंचांग प्रणिपात वंदन किया जाता था।
__ आज स्थानकवासी या तेरहपंथी समाज में फिर भी वंदन की परंपरा है । वे तिक्खुत्तो का पाठ बोलकर वंदन करते हैं, पर मंदिरमार्गी तो इस मामले में शिथिल हो गए हैं। वे सिर्फ चरण-स्पर्श कर लेंगे और हो गई उनकी वन्दना पूर्ण। ____ मैं एक शहर में चातुर्मास कर रहा था। वहाँ घुटनों को धोक लगाई जाती थी। अब तो यह परंपरा भी शायद खत्म होने को है, क्योंकि घुटनों तक भी कौन झुके, इसलिए बस अपने हाथ जोड़कर थोड़ा-सा सिर झुका लेंगे और हो गया प्रणाम। लोगों की कमर इसलिए दुखती है क्योंकि वे झुकना नहीं जानते। याद रखें कि कच्ची केरी ही ऊँची चढ़ी रहती है। आम तो जैसे-जैसे रसीला होता है वैसे-वैसे झुकता जाता है।
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