Book Title: Jage So Mahavir
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 207
________________ जागे सो महावीर १९८ यानी आत्म- जागरूकता है। अहिंसा यानी बोधपूर्ण प्रवृत्ति । इस बोध - दशा या जागरूकता का नाम ही अहिंसा है। संत लोग अपने कपड़ों का प्रतिलेखन करते हैं । प्रतिलेखन अर्थात् कपड़ों को अच्छी तरह से देखा जाए कि उनमें कोई जीव तो नहीं है । यह मेरे हाथ में जो रूमाल जैसा कपड़ा है जिसे पारम्परिक भाषा में मुँहपत्ति कहा जाता है, इसका भी प्रतिलेखन किया जाता है । इसे खोलकर अच्छी तरह से देखा जाता है कि इसमें कोई जीव न हो । यदि वह ऐसे-वैसे ही खोलकर बंद कर दिया जाता है तो यह तो हुई मूढ़ता । यदि यतना और विवेक से इसे खोल कर देखा जाता है ताकि किसी जीव का घात न हो तो यह हुआ अहिंसा का पालन । नहीं थी कबीर की चादर में कहीं कोई गाँठ; खुले थे चारों छोर, फिर भी संध्या - भोर । टटोलती रही भक्तों की भीड़ कि होगा कहीं चिंतामणि - रतन नहीं तो बाबा काहे को करते इतना जतन ! कबीर की चादर में कोई गाँठ नहीं थी जिसमें कि रतन छुपे हुए हों या कोई हीरा या जवाहरात बँधे हों। उनकी चदरिया में कुछ था तो वह था विवेक जो किसी व को बचा सके और उससे प्रेम कर सके। लोग उनकी चदरिया को टटोलते और देखते कि इसमें जरूर कोई रत्न होगा तभी तो कबीर इसकी इतनी यत्न से रखवाली करते हैं। कबीर जैसे लोग तो अपनी चादर को आगे-पीछे सब तरफ से देखते ही रहते हैं कि इसमें कहीं कोई क्रोध- कषाय का, हिंसा का, अभिमान का तथा अविवेक का दाग तो नहीं लग गया है। इसीलिए तो कबीर ने कहा ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया, झीनी झीनी बीनी रे चदरिया | राम-नाम रस पीनी रे चदरिया | झीनी - झीनी बीनी रे चदरिया | ध्रुव प्रह्लाद - सुदामा ने ओढ़ी शुकदेव ने निर्मल कीनी चदरिया, दास कबीर ने ऐसी ओढ़ी ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया | झीनी झीनी बीनी रे चदरिया | Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org

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