Book Title: Jage So Mahavir
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 221
________________ २१२ जागे सो महावीर स्तब्ध रह गयी, पर राजाज्ञा के विरुद्ध कोई कैसे बोल सकता था? राजाज्ञा के आगे तो सबको अपना सिर नवाना ही पड़ता है। ___ उदायी विहार करते-करते नगर तक आ पहुँचे। उनको देखते ही लोग अपनेअपने घरों के दरवाजे और खिड़कियाँ बन्द करने लगे। रास्ते में चलने वाले लोग उन्हें देखकर किसी ओट में छिपने लगे। हर व्यक्ति यह कोशिश कर रहा था कि उदायी की नजर उस पर न पड़ जाए। यदि सिपाहियों ने उदायी से बात करते हुए उन्हें देख लिया तो उन्हें जेल में सड़ना पड़ेगा। उदायी नीची नजरें किये चले जा रहे थे। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर क्या कारण है जिससे उनके साथ यह व्यवहार किया जा रहा है ? तभी उनकी नजर राह चलते एक आदमी पर पड़ी। उन्होंने उसे आवाज लगाई और कहा, 'अरे भाई, बात तो सुनो।' वह व्यक्ति उदायी का पूर्व दीवान ही था। वह भी उनकी बात अनसुनी करके निकल गया। उदायी एक लम्बा और थकान भरा विहार करके आ रहे थे। उन्हें चलतेचलते दोपहर हो गई। धरती अंगारे की तरह तप रही थी। भूख के मारे उनकी आँतें चिपक रही थीं और कण्ठ प्यास से सूख रहा था, पर उन्हें किसी घर से न तो आहार मिला और न ही आश्रय। ___ साँझ ढलने को थी और वे चलते-चलते ठेठ नगर की अन्तिम सीमा तक पहुँच गए, जहाँ से बस्ती खत्म होती थी। उन्हें वहाँ एक झोपड़ी दिखाई दी जिसके बाहर एक कुम्हारिन बैठी थी। कुम्हारिन ने सन्त उदायी को देखकर कहा, 'वंदन, महाराज। किधर से पधार रहे हो?' संत उदायी बोले, 'शहर से आ रहा हूँ।' कुम्हारिन बोली, 'इतने बड़े नगर में आप क्यों नहीं ठहरे ?' संत ने जवाब दिया, 'स्थान न पा सका इस नगर में।' कुम्हारिन बोली, 'अरे ! इतना बड़ा शहर, इतने सम्भ्रांत लोगऔर आप स्थान न पा सके!' संत शांत स्वर में बोले, 'मैं नहीं जानता कि इसका कारण क्या है ? मेरे साथ वहाँ ऐसा व्यवहार क्यों किया गया? पर यह सत्य है कि मैं वहाँ अन्न, जल और स्थान तीनों ही न पा सका।' कुम्हारिन बोली, 'आग लगे ऐसे नगर को जहाँ आप जैसे दिव्य संत के लिए जगह और अन्न-जल न हो। आप थोड़ा ठहरें। मैं अन्दर जाकर अपने पति से कहकर आपके रहने और खाने का प्रबन्ध कराती हूँ।' कुम्हारिन अन्दर जाकर कुम्हार से कहती है, 'अरे ! देखो, अपने झोंपड़े के बाहर एक संत आए हैं। तुम जल्दी से बाहर जाओ और उनसे आहार-पानी का अनुरोध करो तथा उनके ठहरने की व्यवस्था करो।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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