________________
व्रतों की वास्तविक समझ
मेरे प्रिय आत्मन् !
यह सारा पृथ्वी-ग्रह हमारा घर है और हम सभी लोग इसके सदस्य हैं। जिस तरह किसी भी घर को सजाने और सँवारने का दायित्व घर के सभी लोगों का होता है, ऐसे ही इस पृथ्वी-ग्रह को सज्जित, शृंगारित और सुवासित करने के लिए हम सभी जवाबदेह हैं। कोई भी एक अकेला व्यक्ति किसी देश,समाज और घर को नहीं सँवार सकता। घर तब ही घर रह सकता है जब कि घर का प्रत्येक सदस्य उस घर की सार-संभाल के प्रति प्रतिबद्ध हो। यदि कोई सास, बहू के आने पर यह सोच ले कि अब घर की जिम्मेदारी बहू पर है तो घर सजा-सँवरा नहीं रह सकता और यदि बहू यह सोच ले कि उसे क्या चिन्ता, सास घर को सँभालने के लिए बैठी है तो ऐसे घर की नींव इन हालात में बूढ़ी हो जाएगी। वह घर सुसज्जित, संस्कारित और अखण्डित नहीं रह सकता।
पृथ्वी-ग्रह भी एक घर के ही समान है। यहाँ हम एक मुसाफिर की तरह चार दिन के लिए आते हैं और फिर किसी अन्य ग्रह की तरफ कूच कर जाते हैं। पृथ्वीग्रह पर किसी का आगमन जन्म का सुकून हो जाया करता है और इस ग्रह से प्रस्थान मृत्युकी पदचाप बन जाती है। हकीकत तो यही है कि हम किसी मुसाफिर की तरह चार दिन के लिए यहाँ रुकते हैं और फिर अन्तहीन दिशा की ओर प्रयाण कर जाते हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org