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सच्चरित्रता के मापदंड
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हो, उसे कथनी तक लाने में कोई संकोच न करो, चाहे तुमने बुरा ही क्यों न किया हो। यदि तुम ऐसा नहीं कर पाए तो अपनी मरणासन्न स्थिति में तुम्हें ऐसा लगेगा कि जैसे तुम्हारी छाती पर किसी ने हजार किलो के पत्थर रख दिए हों । तब तुम्हें अपना एक-एक पाप, एक-एक कुकृत्य याद आएगा, जो तुम्हें बेचैन कर देगा। तब न तो तुम शान्ति से जी पाओगे और न ही शान्ति से मर पाओगे। इसलिए जो करते हो, उसे कह कर अपने आप को हल्का कर लो। इस तरह से तुम पाखंड से भी बच जाओगे ।
सच्चरित्रता को यदि काजल की कोठरी में भी बन्द कर दिया जाए तो भी वह वहाँ से बेदाग निकल आएगा और चरित्रहीन सफेद कमरे से भी कालिख पोत आएगा। आपने धर्मशालाओं, तीर्थ क्षेत्रों या सार्वजनिक स्थलों के शौचालयों की दीवारों पर गौर किया होगा कि व्यक्ति ने अपने कलुषित चित्त की कालिमा से उन्हें कैसा बिगाड़ दिया है। ऐसा लगता ही नहीं है कि कोई व्यक्ति यहाँ निवृत्ति के लिए ही आया था। व्यक्ति अपने शरीर की सड़ांध के साथ ही यहाँ पर मन की सड़ांध भी बिखेर जाता है । कितनी विकृतियाँ पलती हैं आदमी के दिमाग में !
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व्यक्ति की मनोवृत्तियाँ, उसकी सोच किसी मन्दिर या तीर्थ क्षेत्र में जाने से ही नहीं बदलते । उसमें बदलाव तभी आता है जबकि वह स्वयं, स्वयं के प्रति ईमानदार हो जाता है । अन्यथा तो दुनिया की नज़रों में हर चोर और अपराधी उस समय तक ईमानदार और निर्दोष ही है जब तक कि उन्हें पकड़ नहीं लिया जाए। किसी का चाबी का गुच्छा खो जाए और दूसरे को मिल जाए तो तुरन्त ही वह उसे हमारे पास है कि यदि किसी का हो तो आप दे देवें। क्योंकि वह जानता है कि तिजोरियों के बिना चाबी किस काम की ! लेकिन यदि किसी के कान का हीरे का लौंग खो जाए तो जिसे मिला है, वह शायद ही जमा कराने आएगा । हाँ, जिसका खोया है, वह जरूर आता है। मैं उससे कहता हूँ कि तू शुक्रिया अदा कर कि तेरे जूते तो सही सलामत है, वरना लोग जूते तक भी नहीं छोड़ते। फिर यह तो हीरे का लौंग है।
व्यक्ति तभी तक प्रामाणिक रह सकता है जब तक उसका यह संकल्प है कि वह हर परिस्थिति में अपनी ईमानदारी और सत्य के प्रति निष्ठा को बरकरार रखेगा। ऐसा व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में धार्मिक कहलाने का अधिकारी है, वरना बस धार्मिकता का लेबल लग जाता है, किसी मंदिर का टीका माथे की सजावट हो
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