________________
हम ही हों हमारे मित्र
५७
समस्त धर्म का, समस्त दर्शन का सार यही है कि व्यक्ति आत्म-विजेता बने। हजारों-हजार व्यक्तियों को जीतना आसान है, पर एक अपनी आत्मा को जीतना कठिन है।
सिकन्दर, नेपोलियन, स्टेलिन और हिटलर ने हजारों जीतें हासिल की। उन्होंने धरती के बहुत बड़े हिस्से को भी शायद जीत लिया होगा, लेकिन उनकी हर जीत फिर से एक नए यद्ध को आमंत्रण था, जबकि जो आत्म-विजेता है. उसके लिए कोई लड़ाई शेष नहीं रहती। सारी धरती के विजेता को भी मृत्यु के सामने तो हारना ही पड़ता है, जबकि आत्म-विजेता के सम्मुख मृत्यु भी हार जाती है।
आत्म-विजेता ही मृत्युंजय-पद को प्राप्त कर सकता है। महावीर के लिए सिकंदर को जीतना आसान था, पर सिकंदर के लिए महावीर बनना मुश्किल था। इसीलिए भगवान ने कहा कि संग्राम में हजारों-हजार शत्रुओं को जीतने की अपेक्षा आत्म-विजय ही श्रेष्ठ है । आत्म-विजय ही कठिन है। किसी श्रेणिक के लिए महावीर बनना कठिन था, जबकि महावीर के लिए किसी प्रसन्नचन्द्र, बिम्बसार या श्रेणिक को अपना अनुयायी बनाकर, उन पर अपना नियंत्रण करना आसान था।
भगवान कहते हैं कि हम अपने आप से लड़ें। एक रात युद्ध के मैदान में विजय का महोत्सव मनाया जा रहा था। एक-एक तम्बू में विजय-ध्वज लहरा रहा था। नृत्य-गायन चल रहे थे और विजय की खुशी में ढोल-ताशे बज रहे थे। उसी समय कोई भिक्षु सम्राट अशोक के तंबू के बाहर पहुँचता है और सम्राट को संदेश भिजवाता है कि वह उनसे मिलना चाहता है। सम्राट को संदेश मिलता है
और सम्राट् जवाब भेजता है कि अभी तो आधी रात का वक्त है। अभी तो मैं अपनी जीत का जश्न बना रहा हूँ। भिक्षु जवाब देता है, 'यही वक्त ही मिलने का है क्योंकि मैं भी सम्राट के साथ विजय का उत्सव मनाना चाहता हूँ।' ___ तब अशोक के द्वारा भिक्षु को आमंत्रित किया जाता है। सम्राट अशोक और भिक्षु एक-दूसरे से मुखातिब होते हैं। भिक्षु कहता है, 'राजन्, तुम अपनी विजय का उत्सव मना रहे हो पर मैं तुम्हें ऐसे स्थान पर ले जाना चाहता हूँ जहाँ तुम्हारी विजय का वास्तविक उत्सव मनाया जा सके। तब वे दोनों ही कलिंग के मैदान में आते हैं, जहाँ हजारों-लाखों लोग घायल और मृत पड़े हैं। भिक्षु अशोक को कहता है, 'तुम इतना नरसंहार करके भी विजय का उत्सव मना रहे हो ! तुमने
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org