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जागे सो महावीर
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नाम सुनते ही भाग जाते थे । वहाँ पढ़ाई के लिए सुबह चार बजे ही उठ जाना पड़ता था और जब हम बारह बजे आहार चर्या के लिए जाते तो बड़ी भूख लगी होती थी। चार रोटी और निनुओ की सब्जी ! और तीसरी कोई चीज नहीं होती। हम उन्हें लाते और बड़े प्रेम से खा लेते। वहीं से मुझे इस बात की प्रेरणा मिली कि जीभ के स्वाद के प्रति कैसी आसक्ति ! सबका परिणाम तो अन्ततः एक ही है ।
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शरीर को कितना ही साफ-सुथरा बना लिया जाए, उस पर कितनी ही सुगंधी लगा दी जाए, इत्र छिड़क दिया जाए, किन्तु थोड़ी देर बाद सब दुर्गन्ध में बदल जाएँगे । चमेली का तेल लगाते ही कितनी खुशबू होती है और अगले दिन माथे पर हाथ लगाकर देखो तो पसीने की बदबू के अतिरिक्त वहाँ कुछ हाथ नहीं आता। दुनिया में कोई ऐसी दुर्गन्ध नहीं है जो शरीर के स्पर्श से सुगन्ध में बदल जाए और ऐसी कोई सुगन्ध नहीं है जो शरीर के स्पर्श से दुर्गन्ध में न बदले। इस शरीर का तो धर्म ही सड़ना - गलना है । कितना भी प्रयत्न कर लिया जाए तो भी शरीर क्षणप्रतिक्षण जर्जरता की ओर ही गतिशील रहेगा। जो व्यक्ति शरीर के इस स्वभाव को समझ लेता है, वह स्वतः ही शरीर की आसक्ति से मुक्त हो जाता है।
हाँ, मैंने अशुचिता का ध्यान किया है, मैंने मल के विरोचित स्वरूप को देखकर अपनी जिह्वा के स्वाद को भी नियंत्रित किया है । जब मैं खाने के लिए बैठता हूँ तो मौन अंगीकार करता हूँ। फिर जो भी खाने को मिल जाए, चाहे वह fia बीज हों या धनिये की जगह नीम के पत्तों की चटनी; मैं उन्हें बड़े प्रेम से स्वीकार करता हूँ । जब कभी मन में यह भाव उठता है कि सब्जी बिल्कुल फीकी है तो मेरा बोध मुझे तत्काल यही प्रेरणा देता है कि दो मिनट का ही तो स्वाद है क्योंकि भोजन तो मात्र शरीर के लिए ईंधन आपूर्ति है । क्या फीका और क्या खारा ! मन की स्थिति उसी क्षण संतुलित हो जाती है। जब कभी कड़क रोटी आ
है और ऐसा लगता है कि वह चबेगी नहीं और जबड़े भी इतनी सख्त रोटी को सहन नहीं कर पाएँगे तो तत्काल यह विचार उठता है कि रोज खाना खाने बाद आधा गिलास पानी पी लूँ। क्यों न आज खाने के पहले ही रोटी को पानी में भिगोकर पानी और रोटी को साथ खा लिया जाए। आखिरकार पेट में जाने के बाद तो दोनों को मिलना ही है ।
व्यक्ति को वस्त्रों का कितना राग है ! अभी-अभी जो महानुभाव आपके बीच आए थे, वे बता रहे थे कि उनके पास पिचयासी जोड़ी वस्त्र हैं। महिलाओं
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