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साधना राग की, प्रार्थना वीतराग की
उसकी स्थिति उस त्रिशंकु की तरह हो जाती है जो न तो पूरा पृथ्वी पर होता है और न ही पूरा आकाश में। वह बीच में ही अटक कर रह जाता है। आदमी जब संसार में रहता है, तब संन्यस्त होने के ख्वाब देखता है और जब वह संन्यस्त हो जाता है तब संसार की कल्पनाओं में खोया रहता है। व्यक्ति मंदिर जाता है और कहता है 'हे वीतराग!'
हे देव तारा दिल मां वात्सल्य ना झरणा भर्या, हे नाथ तारा नयन मां करुणा तणा अमृत भर्या। वीतराग तारी मीठी-मीठी वाणी मां जादू भर्या,
तेथीज तारा चरण मां बाळक बणी आवी गया। वीतराग के चरणों में वीतरागता की प्राप्ति के लिए प्रतिदिन प्रार्थना करने वाला व्यक्ति मंदिर से जब घर लौटता है और भोजन के लिए बैठता है तो कहता है, 'मुझे यह नहीं भाता, वह भाता है। अगर सब्जी अच्छी लगती हो तो आदमी दो रोटी की जगह चार रोटी खा जाता है और यदि सब्जी पसंद की न हो तो वह एक रोटी भी बड़ी मुश्किल से खाता है। यह सब ही तो राग, आसक्ति और मूर्छा है। किसी बच्चे को कहो कि टमाटर की सब्जी है जिसमें शक्कर भी डाली गई है तो वह बड़ी खुशी से खाना खा लेगा और वहीं उसे यह कहो कि तुरई की सब्जी है तो वह खाना छोड़कर भाग जाएगा। जब आलू बनता है तो अच्छा लगता है और केला बुरा लगता है। व्यक्ति यह नहीं सोचता कि इस डेढ़ इंच की जीभ का ही तो स्वाद है, बाकी तो सबका एक ही परिणाम है। यदि रसगुल्ला खाया जाएगा तो उसका भी वही परिणाम होगा जो कि सूखी रोटी का होता है। पेट में पहुँचने पर तो सबका एक ही परिणाम ! यह तो मात्र व्यक्ति की तृष्णा और आसक्ति की आपूर्ति है। भोजन के प्रति कैसी आसक्ति, कैसी आसक्ति शरीर के प्रति ! ___ यह शरीर तो एकदम उस बिजुके की तरह है जो किसी खेत में पक्षियों को डराने के लिए रखा जाता है। ये हाथ एकदम पेड़ की टहनियों जैसे हैं। यह पेट एक डिब्बा-सा है जिसमें रोटी पचाने के लिए डाली जाती है और अन्त में मल बनकर सब निकल जाता है। जिसके मन में अन्तरपीड़ा है, उसकी भी यही स्थिति है और जो जीवन के प्रति उपहास-दृष्टि रखता है, उसके साथ भी यही स्थिति है। ___किन्हीं दिनों हम वाराणसी में रहकर पढ़ाई किया करते थे। निनुआ की एक ही सब्जी उगती थी। जैसे यहाँ तुरई होती है, वैसे ही वहाँ वह सब्जी होती है। वहाँ हमें तीन साल तक उसी सब्जी को खाना पड़ा। बचपन में शायद इस सब्जी का
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