________________
साधना राग की, प्रार्थना वीतराग की
भोजन के समय सन्त युवक के घर पहँचा। युवक अति सम्पन्न था। वह बहुत सुन्दर मकान और सभी सुख-सुविधाओं का स्वामी था। उसने सन्त को बड़े प्रेमपूर्वक भोजन कराया। सन्त उसके घर दो-तीन घण्टे ठहरे और उसे अपनी तरफ से धर्म की दो चार अच्छी बातें भी बताई। फिर संत ने कहा, 'अब मैं जाता हूँ।' युवक ने कहा, 'अभी धूप बहुत है। आप थोड़ी देर और हमें अपना सान्निध्य दें।' संत कुछ देर और रुक गए। कुछ समय बाद संत जाने के लिए तैयार हो गए। युवक ने सोचा कि संत को मैं इतनी दूर से लाया हूँ इसलिए यह मेरा कर्तव्य है कि घर के बाहर तक सन्त को छोड़ आऊँ। __ युवक संत के पीछे-पीछे घर के बाहर तक छोड़ने निकला। संत ने जब युवक को देखा तो उन्होंने उसे अपने पात्र थमा दिए। युवक शर्मवश संत को कुछ कह न पाया और उसके पीछे-पीछे चलने लगा। चलते चलते वह सोचने लगा कि आखिर मुझमें और इन सन्त पुरुष में क्या अन्तर है? ये भी कपड़े पहनते हैं, मैं भी कपड़े पहनता हूँ , ये भी भोजन करते हैं, मैं भी भोजन करता है. इनके लिए भी रहने का स्थान है और मेरा भी रहने का मकान है। बस, फर्क तो एक ही है कि इनके पत्नी नहीं है और मेरे पत्नी है। तो क्या मात्र यही अन्तर होता है संत और गृहस्थ में ? ___ जब इस बात पर सोचते-सोचते उसकी जिज्ञासा बहुत बढ़ गई तो उसने सन्त से कहा, 'महाराज ! मेरे मन में एक जिज्ञासा है कि सन्त और गृहस्थ में क्या अन्तर है? कृपया आप मुझे समाधान दें।' सन्त ने सुना, मुस्कुराए और चलते रहे। युवक भी कुछ और बोलने का साहस नहीं जुटा पाया और वह भी पीछे-पीछे चलने लगा। चलते-चलते वे शहर से बहुत दूर आ गए। अब युवक मन-ही-मन सोचने लगा, 'अहो ! मैं अपने घर से बहुत दूर आ गया हूँ। वापस पहुँचने में भी समय लगेगा। प्रश्न का समाधान नहीं मिला तो कोई बात नहीं, पर अब मुझे वापस लौट ही जाना चाहिए।' वह यह सोचते-सोचते बार-बार पीछे मुड़कर देखता कि मेरा मकान कितना पीछे रह गया है।
आखिरकार उसने हिम्मत कर कहा, 'महाराज, अब मुझे आज्ञा दें, मैं अपने घर लौटना चाहता हूँ।' सन्त बोले, 'जाते-जाते तुम अपने प्रश्न का समाधान भी लेते जाओ। तुम अपने मकान से इतने दूर आने पर भी स्मृतियों में उसी मकान को संजोए हुए हो। तुम्हारा मन अभी भी उस मकान, धन, सम्पत्ति और स्त्री की आसक्ति में मूर्च्छित होकर वहीं टिका है। मैंने उस मकान का, सुख-सुविधाओं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org