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से अन्यत्र कहीं भी जाता, परन्तु उसका मन द्रौपदी में ही लगा रहता। कीचक ने स्वयं अनेक उपायों से द्रौपदी | को लुभाया, दूसरों के द्वारा भी अनेक प्रलोभन दिखलाये, पर उसके हृदय में स्थान प्राप्त नहीं कर सका । रि
नारद से द्रौपदी की प्रशंसा सुन राजा पद्मनाभ ने जब देवांगना के समान द्रौपदी को देखा तो वह भी | उसके रूप पर मोहित हो गया । अपना परिचय देते हुए वह बोला- मैं राजा पद्मनाभ हूँ । नारद ने मुझे तुम्हारे विषय में बताया था कि तुम अत्यन्त सुन्दर हो और मेरे योग्य हो; इसलिए मेरा आराधित देव मेरे लिए तुम्हें यहाँ अपहरण करके लाया है।
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ये वचन सुनकर महासती द्रौपदी सोचने लगी- “अहो ! नारद ने नाराज होकर यह क्या किया ? यह तो एक नया संकट आ गया है। अब तो जब तक अर्जुन के दर्शन नहीं होंगे तब तक मेरा अन्न-जल - श्रृगांरादि का त्याग रहेगा " ऐसा संकल्प कर उसने अपनी वेणी भी बाँध ली, जिसे अब अर्जुन ही छोड़ेंगे।
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द्रौपदी ने पद्मनाभ से कहा - “हे पद्मनाभ ! यदि तू अपना कल्याण चाहता है तो मुझे सर्पिणी के समान विषधर समझकर शीघ्र ही वापस भेज दे।" परन्तु मोहान्ध पद्मनाभ ने द्रौपदी का कहना नहीं माना, तब | महासती द्रौपदी ने पुन: कहा- “मुझे एक माह का मौका दे। मेरे स्वजन यदि एक मास में यहाँ न आए तो तुम्हारी जो इच्छा हो वह करना।" यह सुनकर पद्मनाभ चुप तो हो गया; पर द्रौपदी को अपने अनुकूल करने के परोक्षरूप से प्रयत्न करता रहा, किन्तु वह सती अपने दृढ़ निश्चय पर डटी रही। अर्जुन के वहाँ से ले जाने पर्यन्त टस से मस नहीं हुई।
इन सब बातों से द्रौपदी के सतीत्व की शंकायें स्वतः निर्मूल हो जाती हैं।
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