Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 268
________________ on F85 ॥ द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा कालाणुओं में विकार नहीं होता। इसलिये उत्पाद-व्यय से रहित होने के || कारण वे कथंचित नित्य और अपने स्वरूप में स्थित हैं; परन्तु अगुरुलघुत्व गुण के कारण उन कालाणुओं | में प्रत्येक समय परिणमन होता रहता है तथा परपदार्थों के सम्बन्ध से वे विकारी हो जाते हैं; इसलिये | पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा कथंचित् अनित्य भी हैं। | भूत, भविष्य और वर्तमानरूप तीनप्रकार के समय का कारण होने से वे कालाणु तीन प्रकार के माने गये हैं और अनंत समयों के उत्पादक होने से अनन्त भी कहे जाते हैं। उन उपादान के कारणभूत कालाणुओं से समय की उत्पत्ति होती है। कार्य की उत्पत्ति में मुख्य कारण उपादान है, सहकारी कारण के रूप में भिन्न जाति के द्रव्य को भी व्यवहार से निमित्त की अपेक्षा से कारण कहा जाता है। समय, आवली, उच्छ्वास, प्राण, स्तोक और लव आदि को आचार्यों ने व्यवहारकाल कहा है। ___'समय' की व्याख्या में कहा गया है कि - सर्व जघन्य गति परिणाम को प्राप्त हुआ परमाणु जितने समय में अपने द्वारा प्राप्त आकाश प्रदेश को लांघता है, उतने काल को समय कहा गया है। समय काल द्रव्य की सबसे छोटी इकाई है, अत: यह अविभागी होता है। असंख्यात समय की एक आवली होती है। असंख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास-निश्वास होता है। दो उच्छ्वास-निश्वासों का एक प्राण होता है। सात प्राणों का एक स्तोक और सात स्तोकों का एक लव होता है। सत्तर लवों का एक मुहूर्त होता है और तीस मुहूर्तों का एक दिन-रात होता है। ___ दिन-रात के पश्चात् व्यवहार कालद्रव्य की ऋतु, अयन, युग, पूर्वांग आदि नामों से तो संख्यात काल की चर्चा है। ज्ञातव्य है कि यह काल भी असंख्यवत् ही है। इसके बाद जो काल वर्षों की संख्या से अतीत है, संख्यातीत है; वह असंख्येय व्यवहारकाल माना जाता है। इसके भी पल्य, सागर, कल्प तथा अनन्त आदि अनेक भेद हैं।

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