Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 272
________________ । योनियों में जन्म-मरण के अनन्त दुःख भोग रहा है; उन दुःखों को तुम सुन भी न सकोगी; परन्तु तू विगत |चार भवों के कारण कुगतियों में नहीं गई तू गत चार भव पूर्व विजयार्द्ध पर्वत की अलका नगरी में महाबल | नाम के विद्याधर का हरिवाहन नामक पुत्र थी। तेरा एक बड़ा भाई शतबली था। उसने तुझे मतभेद होने | से घर से निकाल दिया। वहाँ से निर्वासित होकर जाते हुए तुझे श्रीधर्म और अनन्तवीर्य मुनिराज के दर्शन | हो गये। उनसे तूने जिनदीक्षा ले ली और सल्लेखना पूर्वक मरण कर ऐशान स्वर्ग को प्राप्त हुई । वहाँ के सुख भोगते हुए संक्लेश परिणामों से मरण कर तू स्त्री पर्याय में आकर सत्यभामा नाम की कन्या हुई है। इस जन्म में तप करने से तू उत्तम देव होगी और वहाँ से मनुष्य पर्याय प्राप्त कर तप कर मुक्ति को प्राप्त होगी। इसप्रकार अपना सुखद भविष्य जानकर सत्यभामा ने हर्षित हो भगवान को बारम्बार नमन किया। | तदनन्तर श्रीकृष्ण की प्रियपत्नी रुक्मणी ने भी अपने पूर्वभव पूछे - भगवान की दिव्यध्वनि में आया कि तू अपने पूर्वभव में लक्ष्मीमती ब्राह्मणी थी, अहंकार में आकर तूने समाधिगुप्त मुनि की निन्दा की, परिणामस्वरूप तू गधी, शूकरी, कुत्ती और उसके बाद पूतिगन्धिका नाम की धीवर की पुत्री हुई। पापोदय से तेरे माता-पिता ने भी तुझे घर से निकाल दिया। एक दिन उपवन में वही समाधिगुप्त मुनिराज आये । रात्रि में ठंड की अधिकता से तेरे ही जीव पूतिगंधिका ने मुनिराज पर जाल डाल कर उन्हें ढक दिया । मुनिराज अवधिज्ञानी थे, इसलिए उन्हें पूतिगंधिका की दुर्दशा देख दया आ गई। उन्होंने उसे समझाया और उसके पूर्वभव सुनाये, जिससे उसने संसार से विरक्त होकर धर्मधारण कर लिया। एक बार वह पूतिगंधिका सोपारक नगर गई, वहाँ आर्यिकाओं के साथ तप करती हुई राजगृह नगर चली गयी। वहीं अन्त में सल्लेखना धारण कर सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र की प्रियमहा देवी हुई, वहाँ से चयकर तू रुक्मणी हुई है। अब इस उत्तम पर्याय में तू दीक्षा धारण कर उत्तम देव होगी और वहाँ से च्युत होकर निर्ग्रन्थ तपश्चरण कर मुक्ति प्राप्त करेगी। अपने पूर्व भव सुनकर रुक्मणी के रोंगटे खड़े हो गये, वह संसार से अत्यन्त भयभीत हो गई और अपना ||२६ REFS FEES :

Loading...

Page Navigation
1 ... 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297