Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 278
________________ । जलाकर मुक्त हो गया। जो सम्यग्दर्शन से पवित्र थे, वे मृत्यु के भय से निर्भय हो समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण कर सद्गति को प्राप्त हुए। वे मनुष्य धन्य हैं जो संकट आने पर, अग्नि की शिखाओं के बीच भी ध्यानस्थ अग्नि से विकार को जलाकर अपने मनुष्यभव को सार्थक कर लेते हैं। जो तप निज व पर को सुखी करनेवाला है, वही उत्तम है, प्रशंसनीय है तथा जो तप द्वैपायन मुनि की भांति निज व पर को कष्टदायक है, वह उत्तम नहीं है। दूसरों का अपकार करनेवाला पापी मनुष्य दूसरों का वध तो एक जन्म में करता है, पर उसके फल में अपना वध जन्म-जन्म में करता है तथा अपना संसार बढ़ाता रहता है। असहनशील व्यक्ति दूसरे का अपकार किसी तरह भी कर सकता है, परन्तु ध्यान रहे, दूसरों को दुःखी करनेवाले को स्वयं भी दुःख की परम्परा ही प्राप्त होती है। [ विधि के वशीभूत हुए क्रोध से अन्धे द्वैपायन मुनि ने जिनेन्द्र के वचनों का उल्लंघन कर बालक, स्त्री, पशु औरश्वृद्धजनकानावस्तुसमजदया पायाने अममहमलेकिरहीअपमहाडैखाकावदातालयी हतनी ऐसे कोहीकाधिक्कैनरइलाके शरीर की इतनी ही क्षमता है, इनकी कषाय परिणति की ऐसी ही विचित्र योग्यता - है। इस खोटी प्रवृत्ति करने के लिए ये बेचारे विवश हैं; क्योंकि इनके औदयिक व क्षायोपशमिक भाव ही इस जाति के हैं। अत: इस समय ये बेचारे न कुछ सीख सकते हैं, न कुछ समझ ही सकते हैं। और न इनके वर्तमान विभावस्वभाव में किसी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना ही है। फिर भी हम इन पर दया करने के बजाय क्रोध क्यों करे ? सचमुच ये तो दया के पात्र हैं। हम इनसे क्यों उलझते हैं ? यदि हम भी इन्हीं की भांति उलझते हैं तो फिर हमारे स्वाध्याय का लाभ ही क्या ? कदाचित् कषायांश वश उलझ भी जायें तो यथाशीघ्र सुलझने की ओर प्रयासरत हो जाना चाहिए। वस्तुत: यही सुखी जीवन का रहस्य है। - सुखी जीवन, पृष्ठ-१०४१०५

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