Book Title: Harivanshkatha
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 288
________________ २८४ ह ५५. क वं श क था तात्पर्य यह है कि - कर्मों की विविध प्रकृति-प्रदेश-स्थिति- अनुभाग रूप विचित्रता भी जीवकृत नहीं है, पुद्गलकृत ही है। जीव के परिणाम तो निमित्तरूप मात्र उपस्थित होते हैं, वे कर्मों के कर्ता नहीं होते । प्रश्न: क्या जीव कर्म के उदयानुसार विकारी नहीं होता? उत्तर : “नहीं, कभी नहीं; क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर तो सर्वदा विकार होता ही रहेगा; क्योंकि संसारी जीव के कर्मोदय तो सदा विद्यमान रहता ही है।" प्रश्न : तो क्या पुद्गल कर्म भी जीव को विकारी नहीं करता ? उत्तर : “नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की परिणति का कर्त्ता नहीं है । " प्रश्न : अध्यात्म में सम्बन्ध एवं संबोधन कारक क्यों नहीं होते ? ट् उत्तर : वे क्रिया के प्रति प्रयोजक नहीं होते। जैसे- "देवदत्त जिनदत्त के मकान को देखता है" इस उदाहरण में देखने रूप क्रिया का प्रयोजक मात्र मकान है न कि जिनदत्त का । वह मकान किसी का भी का हो, इससे देखने रूप क्रिया के प्रयोजन पर कोई फर्क नहीं पड़ता, इसलिए कारक छह ही हैं 'सम्बन्ध कारक' परमार्थ से कारक ही नहीं है । संबोधन भी दूसरों का ही किया जाता है । सम्बन्ध एवं संबोधन पर से जोड़ते हैं और अध्यात्म में पर कुछ भी संबंध नहीं होता। इस कारण अध्यात्म में सम्बन्ध एवं संबोधन कारक नहीं होते । अध्यात्मदृष्टि से स्व में ही निज शक्तिरूप षट्कारक हों, तभी वस्तु पूर्ण स्वतंत्र एवं स्वावलम्बी हो सकती है। सिद्धान्त रूप में भी जैनदर्शन में प्रत्येक वस्तु की स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा स्वतंत्र अस्तित्व की उद्घोषणा कर परचतुष्टय का उसमें नास्तित्व बतलाया है । तात्पर्य यह है कि - प्रत्येक वस्तु का जितना भी 'स्व' है, वह स्व के अस्तित्वमय है। उसमें पर के अस्तित्व का अभाव है। सजातीय या विजातीय कोई भी वस्तु अपने से भिन्न स्वरूप सत्ता रखनेवाली किसी भी व 15 16 र क स्व रू प ए वं का र्य २८

Loading...

Page Navigation
1 ... 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297